Monday, November 28, 2011

Justic for Captain Saurabh Kalia

Dear Friends,

On June 9, 1999, NK Kalia had received the body of his son – Captain Saurabh Kalia – mutilated and disfigured. His ear drums pierced with hot iron rods, eyeballs carved out with knives, genitals chopped off, every bone broken and splintered. It has been subjected to the most brutal of torture by the Pakistan Army violating the Geneva Convention.


Twelve years later, 62-year-old Kalia is still fighting for justice – he wants the act to be declared a war crime by the UN. But no action taken yet even after numerous letters to the our Central Government.

On enquiry we found that, it is our ministry of external affairs that did not follow up the case with the UN!!
In order to declare a war crime, the ministry of defense needs to write to the ministry of external affairs(This was done),

Ministry of external affairs then takes up the matter with the UN Human Rights Council(This is not done yet).

The council then refers the matter to the General Assembly, which can declare war crime. It then goes to the international court of justice.

India has become a country of spineless leaders..
Its shame that we belong to a country where justice is always delayed and finally denied!!

Please don't hesitate to share. Let every True Indian show our protest against this injustice by sharing it in our wall!!

more from http://hillpost.in/2008/03/21/seven-years-captain-kalias-family-waits-for-justice/4890/more2/activism/rsood/comment-page-1#comment-648177

Saturday, October 22, 2011

जरा याद करो कुर्बानी


देश पर जान देने वाले लोगों को हम भूल गए। भूल गए उनकी पीढि़यों को जो गुमनामी के अंधेरे में हैं। 15अगस्त और 26 जनवरी को हम कुछ शहीदों को याद कर भूल जाते हैं। यह सोचने की जहमत नहीं उठाते कि उनके परिजन कहां और किस हालत में हैं। स्वतंत्रता आंदोलन की जो हस्तियां राजनीति में आ गईं, उनकी परिवार और पीढि़यों को तो लगा याद रखे हुए हैं, लेकिन उन्हें हमारी पीढ़ी का शायद ही कोई जानता हो, जिन्होंने सही मायने में देश के लिए जान दी। हमारी नई जेरनेशन तो उनके नाम तक नहीं जानती है। उसके पास टाइम नहीं है कि वह इस बारे में सोचे। वह अपने करियर के पीछे इस कदर भाग रही है कि मां-बाप तक पीछे छूट जाते हैं। फिर उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के शहीदों ओर उनके परिवार वाले कहां याद रहेंगे। ऐसे ही लोगों को झकझोरने और गुमनामी में खो चुके ऐसे लोगों को सामने लाने का काम किया है शिवनाथ झा ने। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक शिवनाथ झा इस काम में कई सालों से लगे हैं। वे इसे ‘आंदोलन एक पुस्तक से’ के जरिए मुहिम का रूप दे चुके हैं। इस सीरिज की पांचवी पुस्तक ‘इंडियन मोर्टियर्स एंड देयर डिसेंडेंटस 1857-1947’ जनवरी में लोगों के सामने होगी। 400 से अधिक पेजों की यह पुस्तक वह उधम सिंह की तीसरी पीढ़ी के लोगों को सहायता दिलाने के लिए ला रहे हैं। उनका परिवार बुरी हालत में इस समय जी रहा है। इस पुस्तक में शिवानाथ झा ने मंगल पांडेय, चन्द्रशेखर आजा, सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, चापेकर बंधु, जतीन्द्र नाथ मुखर्जी, अजीमुल्ला खा, अशफाउल्ला खां, राम प्रसाद बिस्मिल सहित 35 शहीदों को शामिल किया है।
शिवनाथ झा से जब दिलीप जायसवाल की बात हुई तो उन्होंने बताया कि पुस्तक के जरिए उनके आंदोलन की शुरूआत शहनाई वादक बिस्मिल्ला खां को सहायता दिलाने से शुरू हुई। यह 2002 की बात है। उसी समय उन्होंने आंदोलन एक पुस्तक से की मुहिम शुरू की। तब से यह आंदोलन पड़ाव दर पड़ाव आगे बढ़ रहा है। सीरिज की पांचवीं बुक वह शहीदों की गुमनाम पीढि़यों की सहायता के लिए ला रहे हैं। उन्हें हम भूल गए। सरकार भी सुध नहीं ले रही है। जिनकी वजह से हम आजादी की खुली हवा में सांस ले रहे हैं, उन्हें सिर्फ श्रद्वांजलि देने से काम नहीं चलेगा, उनकी पीढि़यों केा गुमनामी से बाहर लाकर काम करना होगा।
उधम सिंह- इस शहीद नाम हम भला कैसे भूल सकते हैं। ये वहीं उधम सिंह हैं, जिन्होंने जलियावाला बाग हत्याकांड का बदला जनरल डायर से लिया था। उनकी तीसरी पीढ़ी आज किस हालत में है यह आप नहीं जानते होंगे। उनके प्रपौत्र जीत सिंह आजकल दिहाड़ी मजदूर का काम पंजाब के सनमगरू में करते हैं। सिर पर ईंट, गारा ढोते हैं। परिवार चलाने के लिए उन्हें यह करना पड़ता है।उनके दो बेटों में से एक जसपाल कपड़े की दुकान पर काम करते हैं। इस शहीद परिवार की सुध तो सरकार ने नहीं ली, लेकिन शिवनाथ अपनी पुस्तक उन्ही की सहायता के लिए लेकर आ रहे हैं।
तात्याटोपे- तात्याटोपे को तो आप जानते ही होगे, जिन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में प्रमुख भूमिका निभाई। उनकी तीसरी पीढ़ी के विनायक राव टोपे अपनी पत्नी सरस्वती देवी और तीन बच्चों प्रगति, तृप्ति और आशुतोष के साथ कानपुर से 20 किमी दूर बिठूर में रहते थें। वहां वे किराना की दुकान चलाते थें। यह बात जब मीडिया में जून 2007 को आई तब तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने प्रगति और तृप्ति को रेलवे में जाॅब देने का आश्वासन दिया। इसके बाद उन्हें सहारा और सहायता मिली।
बहादुर शाह जफर- मुगलों के अंतिम शासक और 1857 की क्रांति का नेतृत्व करने वाले बहाुदर शाह जफर परिवार की 56 वर्षीय सुल्ताना बेगम तो पश्चिम बंगाल के हाबड़ाके एक स्लम एरिया में रहती थीं। वहां वे चाय की दुकान चलाकर अपना परिवार पाल रही थीं। सुल्ताना बेगम पति मुहम्मद बदर बख्त की मौत 1980 के बाद सरकार ने उन्हें रहने के लिए टाली गंज में एक आवास दिया था, लेकिन लोकल गुंडों ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया। उन्हें उसे फलैट से भगा दिया गया। उन्हें सहायता दिलाने का काम शिवनाथ ने किया।
झांसी की रानी- खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। भुजाएं फड़का देेने वाला यह देशभक्ति गीत लोगों की जुबान पर तो है, लेकिन रानी लक्ष्मीबाई के परिवार को लोग भूल गए। वह अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को बांधे युद्व लड़ी थीं। दामोदार राव की अगली पीढ़ी को लोग जानते नहीं होंगे। वे मध्य प्रदेश के इंदौर में एक गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं। तलवार से खेलने वाली पीढि़यों के वंशज आज कंप्यूटर चला रहे हैं। दामोदार राव की प्रपौत्री गायत्री साफटवेयर इंजीनियरिंग की छात्रा हैं। उनका परिवार भी अच्छी हालत में नहीं है।
बटुकंेश्वर नाथ दत्त- भगत सिंह के साथ मिलकर असेंबली में बम फेंकने वाले क्रातिकारी बटुकेश्वर दत्त को आजादी केा बाद लोग भूल गए। उनकी सुध सरकार को भी नहीं रही। उन्होंने गुमनामी की अंधेरे में 1965 में दिल्ली के एम्स में दम तोड़ दिया था। उनकी बेटी बागची आज उनकी यादों को जिंदा रखे हुए हैं। भगत सिंह के साथ फांसी पर चढ़ाए गए सुखदेव के परिजन भी खामोश जिंदगी गुजार रहे हैं। आजादी में अपने तीने बेटों की आहुति दे चुके पुणे का चापेकर परिवार के लोग अब साफटवेयर इंजीनियर हंैं। उनके आसपास वाले भी नहीं जानते कि यह शहीदों का परिवार हैं। चंद्रशेखर आजाद के दूर के वंशज गुड़गांव और दिल्ली में हैं। अनुशीलन समिति से जुड़े रहे क्रांतिकारी जतीन्द्रनाथ मुखर्जी के पोते पृथ्वीचन्द्रनाथ मुखर्जी पेरिस में रह रहे हैं। सत्येन्द्रनाथ बोस को अंग्रेजों ने तिरंगा फहराने पर फांसी दे दी थी। उनकी परिजन सागरिका घोष पश्चिम बंगाल के तुमलुक में रहती हैं।
इस पुस्तक इसी तरह बहुत से शहीद परिवारों को खोजकर सामने लाया गया है, जो गुमनामी में जी रहे हैं।
देश पर जान देने वाले लोगों को हम भूल गए। भूल गए उनकी पीढि़यों को जो गुमनामी के अंधेरे में डूबे हुए हैं। वक्त के साथ उन पर दुखों की मोटी परत चढ़ी हुई है। स्वतंत्रता आंदोलन की जो हस्तियां राजनीति में आ गईं, उनकी परिवार और पीढि़यों को तो लगा याद रखे हुए हैं, लेकिन उन्हें हमारी पीढ़ी का शायद ही कोई जानता हो, जिन्होंने सही मायने में दखे के लिए जान दी। हमारी नई जेरनेशन तो उनके नाम तक नहीं जानती है। गुमानामी में खो चुके ऐसे लोगों को सामने लाने का काम किया है शिवनाथ झा ने। वे सराकर एवं समाज को झकझोरने का कम कर रहे। इसके लिए वे आंदोलन एक पुस्तक से भारतीयों के सामने लाए हैं, इस सीरीज की बुक इंडियन मार्टर एंड देयर निगलेक्टेड डिसेंट में कई शहीदों के परिवार को सामने लाएं हैं, जिन्हें लोग भूल चुके हैं। युवा पीढ़ी के पास टाइम नहीं है कि वह इस बारे में सोचे। वह अपने करियर के पीछे इस कदर भाग रही है कि मां-बाप तक पीछे छूट जाते हैं। फिर उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के शहीदों ओर उनके परिवार वाले कहां याद रहेंगे।

  शिवनाथ बताते हैं कि शहीदों पर लोग लंबे-लंबे भाषण तो बहुत देते हैं, उनके वंशजों को उचित सम्मान देने की बात होती है, लेकिन जब उनके लिए कुछ करने की बात आती है तो सभी पीछे हट जाते हैं। सरकार भी इस पर ध्यान नहीं देती है। असेंबली बम कांड में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव शामिल थे। तीनों क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था। पार्लियामेंट में भगत सिंह की तस्वीर तो लगी है, लेकिन राजगुरू और सुखदेव का नहीं। इन दोनों शहीदों को सरकार याद तक नहीं करती। जब उनके साथ यह किया जा रहा है तो उनके वंशजों की सरकार कहां तक सुध लेगी समझा जा सकता है। शिवनाथ बताते हैं कि उधम सिंह के वंशजों जीत सिंह और अन्य की सहायत के लिए वह अपनी नई पुस्तक ला रहे हैं। इस पुस्तक से जो भी कमाई होगी वह उनके वंशजों को दी जाएगी। इस आंदोलन को लेकर लोग बात तो बहुत करते हैं। इसकी तारीफ भी करते हैं, लेकिन जब सहायता की बात आती है तो मुश्किल से कोई सामने आता है। इसी कारण इस बुक को पब्लिश करने मेें आर्थिक दिक्कतों का सामना पड़ रहा है। वह बताते हैं कि एक बुक की कीमत 2100 रूपये है। लोग इसे खरीद कर शहीद परिवार की मदद कर सकते हैं।
 

Source : http://apnajagat.blogspot.com/2011_06_01_archive.html

Friday, October 21, 2011

स्वतंत्रता सेनानी : आजादी के बाद हक की लड़ाई


ॠषिकेश की घटना है. एक दिन सड़क के किनारे एक महिला की लाश मिली. लाश आधी सड़ चुकी थी. लोग लाश को देखकर नाक बंद कर बगल से गुज़र जा रहे थे. किसी ने पुलिस को ख़बर दी. पुलिस आई और लाश को ले गई. इस लाश का क्या हुआ यह पता नहीं लेकिन ये लाश किसकी है, यह पता करने में पुलिस को एक महीने से ज़्यादा का व़क्त लग गया. पता चला कि ये लाश बीना भौमिक की है. आज शायद ही किसी को मालूम हो कि बीना भौमिक कौन है. यह नाम उस लड़की का है जिसे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अग्नि कन्या के नाम से जाना जाता था.  इस लड़की ने ही 1932 में कोलकाता यूनिवर्सिटी में बीए के कोनवोकेशन के दौरान गवर्नर स्टेनली जैक्सन पर जानलेवा हमला किया था. स्टेनली तो बच गया लेकिन इस घटना से पूरे देश में तहलका मच गया था कि एक लड़की ने गवर्नर पर हमला कर दिया. पहली बार लोगों को लगा कि नौजवानों के साथ-साथ लड़कियां भी स्वतंत्रता संग्राम में अपने साहस का परिचय दे रही हैं. गवर्नर पर हमला करने के लिए बीना भौमिक को 9 साल की सज़ा हुई. जेल से निकलने के  बाद वह क्रांतिकारी बन गई.
जुगांतर रेवोल्यूशनरी क्लब की सदस्य बन गईं. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बीना भौमिक को फिर तीन साल जेल में रहना पड़ा. उस दौरान वह कोलकाता कांग्रेस कमेटी की सचिव थी. बीना भौमिक स्वतंत्रता संग्राम का जीता-जागता इतिहास थी, देश की धरोहर थी. हमने किसी अंजान शहर में इन धरोहरों को मरने छोड़ दिया है.
आज हम खुद को सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहते हैं, लेकिन क्या कभी हमने सोचा कि जिन लोगों ने देश को आज़ादी दिलाई, उनके साथ हमारा बर्ताव कैसा है? स्वतंत्रता सेनानी आज सरकारी दफ़्तरों के बाहर ठोकरें खा रहे हैं. अस्पताल के बाहर घंटों लाइन में खड़े होकर इलाज कराने को मजबूर हैं. ज़िंदगी के आखिरी पड़ाव में हमने उन्हें अकेला छोड़ दिया है. स्वतंत्रता संग्राम के दीवानों को काग़जात देकर साबित करना पड़ रहा है कि उन्होंने अंग्रेजों के खिला़फ लड़ाई की थी. विदेशियों से लड़ना उनके लिए आसान था, अपनों से लड़ना उन्हें भारी पड़ रहा है.
यही हमारा दुर्भाग्य है. यही आज़ाद भारत है, जिसके लिए बीना भौमिक जैसी हज़ारों नौजवानों और युवतियों ने अपना जीवन न्योछावर कर दिया था. उनका सपना तो न जाने कहां गुम हो गया लेकिन स्वतंत्रता के वे सेनानी, हमारे ब़ुजुर्ग, जो हमारे आस-पास हैं, जिंदा हैं, सांस ले रहे हैं, उन्हें हमने ज़िंदगी के आ़खिरी मोड़ पर अकेला छोड़ दिया है. स्वतंत्रता सेनानी बूढ़े हो गए हैं. हालात यह हैं कि समाज और सरकार की तऱफ से उन्हें कोई सहूलियत नहीं मिल रही है. ज़्यादातर सेनानियों को घर वालों ने भी छोड़ दिया है. बेटा साथ नहीं रहता है. समाज और सरकार ने उनका तिरस्कार कर दिया है. वे पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो गए हैं. सरकार की तऱफ से उन्हें पेंशन मिलती है. शर्मनाक़ बात यह है कि पेंशन की राशि इतनी कम है कि बताने में भी शर्म आती है. आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने वाले इन देशभक्तों को हम किसी फोर्थ क्लास कर्मचारी के वेतन से भी कम पैसे देते हैं.
आजादी के 63 सालों बाद भी हम देश के प्रति उनके त्याग और योगदान का महत्व समझ नहीं पा रहे हैं. हम उन्हें सम्मान देने और उनका हक़ दिलाने के बजाए उन्हें अपमानित कर रहे हैं. मई, 2010 में केंद्र सरकार द्वारा अदालत को बताया गया कि देश भर में क़रीब एक लाख सत्तर हज़ार स्वतंत्रता सेनानी हैं. हालांकि यह आंकड़ा सरकारी दस्तावेजों पर आधारित है. हर महीने यह संख्या बदलती रहती है, क्योंकि इन सेनानियों की उम्र्र इतनी हो चुकी है कि लगभग हर महीने कुछ की मौत हो जाती है. इनमें से क़रीब साठ हज़ार स्वतंत्रता सेनानियों को केंद्र सरकार द्वारा पेंशन मिल रही है, बाक़ी को राज्यों द्वारा पेंशन की व्यवस्था है. पेंशन वितरण के मामले में हर राज्य का अपना नियम है, पेंशन राशि भी अलग अलग है. केंद्र सरकार स्वतंत्रता सेनानियों को 12400 रुपये देती है. वह स्वतंत्रता सेनानी योजना के तहत कुल सात सौ पचासी करोड़ रुपये खर्च करती है. उधर हरियाणा के मुख्यमंत्री ने पिछले 15 अगस्त को स्वतंत्रता सेनानियों की पेंशन राशि छह हज़ार से बढ़ाकर ग्यारह हज़ार रुपये कर दी. इसी तरह कर्नाटक सरकार ने यह पेंशन तीन हज़ार से बढ़ाकर चार हज़ार रुपये कर दी है. दिल्ली में स्वतंत्रता सेनानियों की पेंशन साढ़े तीन हज़ार से बढ़ाकर साढ़े चार हज़ार रुपये कर दी गई है. हैरानी की बात यह है कि दिल्ली में 1998 से ही स्वतंत्रता सेनानियों को पेंशन देने की योजना शुरू की गई थी, लेकिन आज भी यहां पेंशन राशि अन्य राज्यों के मुक़ाबले का़फी कम है. तमिलनाडु में पिछले साल मुख्यमंत्री ने सेनानियों को मिलने वाली पेंशन चार हज़ार से बढ़ाकर पांच हज़ार रुपये कर दी. सरकार स्वतंत्रता सेनानियों की मदद के बड़े-बड़े दावे करती है. उन्हें आर्थिक सहायता के तौर पर पेंशन और विभिन्न क्षेत्रों में आरक्षण देने की बात करती है, लेकिन सच तो यह है कि न जाने कितने स्वतंत्रता सेनानी आज भी गुमनामी और ग़रीबी की ज़िंदगी जी रहे हैं. कई तो अपने हक़ की लड़ाई लड़ते-लड़ते इस दुनिया से ही विदा हो गए. सबसे ज़्यादा शर्मनाक़ बात तो यह है कि कई स्वतंत्रता सेनानियों ने खुद को स्वतंत्रता सेनानी साबित करने में अपनी शेष ज़िंदगी गुज़ार दी. अधिकारियों की मनमानी और व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार की वजह से कई फर्ज़ी लोग खुद को स्वतंत्रता सेनानी घोषित कर सरकारी सुविधाओं का फायदा उठा रहे हैं और असली स्वतंत्रता सेनानी दस्तावेजों में अपना नाम दर्ज कराने के लिए तरस रहे हैं. ताज्जुब की बात तो यह है कि फर्ज़ी लोगों में कई तो ऐसे हैं, जो आज़ादी के समय पैदा ही नहीं हुए थे या फिर उनकी उम्र चार-पांच साल के आसपास रही होगी. ऐसे मामलों में जो लोग पकड़े जाते हैं, उनकी पेंशन रोक दी जाती है. लेकिन सवाल यह खड़ा होता है कि जो अधिकारी बिना जांच-पड़ताल किए फर्ज़ी प्रमाणपत्र पर दस्तखत करके असली स्वतंत्रता सेनानियों का हक़ मारते हैं, उन्हें कोई सज़ा क्यों नहीं मिलती? सुप्रीम कोर्ट स्वतंत्रता सेनानियों की बदहाली पर अ़फसोस जताता है और इसके लिए सरकार की लालफीताशाही को ज़िम्मेदार बताता है, लेकिन क्या इतना का़फी है? ग़ौर करने वाली बात है कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि देश के ज़्यादातर स्वतंत्रता सेनानी ग़रीबी और भुखमरी की ज़िंदगी बिताने पर मजबूर हैं, सरकार की तरफ से दी जाने वाली पेंशन उनके लिए किसी खैरात से कम नहीं है. इस बात से साबित हो जाता है कि देश का सर्वोच्च न्यायालय भी जानता है कि सरकार स्वतंत्रता सेनानियों की अनदेखी कर रही है.
बात स़िर्फ पेंशन और आरक्षण की नहीं है, बात है उनके त्याग और संघर्ष के महत्व को समझने की. स्वतंत्रता संग्राम के जो सिपाही आज ज़िंदा हैं, उन्हें क्या वही भारत नज़र आता है, जिसके लिए वे लड़े थे?
भारत का स्वतंत्रता संग्राम इतिहास का ऐसा पन्ना है, जो कई मायनों में बेमिसाल है. आज़ादी के सिपाहियों की बहादुरी और त्याग की वजह से ही आज हम आज़ाद भारत में सांस ले पा रहे हैं. 1857 से शुरू हुआ स्वतंत्रता संग्राम 1947 तक चला. इसमें कई पीढ़ियों का संघर्ष और बलिदान शामिल है. देश को आ?ज़ाद कराने के लिए इस लड़ाई में जिन लोगों ने हिस्सा लिया, वे आज खुद को कोस रहे हैं. आएदिन भ्रष्टाचार, किसानों द्वारा आत्महत्या, नक्सलियों का बढ़ता प्रभाव, ग़रीब और अमीर में बढ़ता फासला, सांप्रदायिक दंगे, हिंसा और नेताओं के नित नए फरेब देखकर उनका कलेजा बैठ जाता है. उन्होंने जिस आज़ादी के लिए अंग्रेजों से लड़ाई की, वह तो कहीं नज़र नहीं आती.
जिस देश को आज़ाद कराने के लिए इन सिपाहियों ने लाठियां और गोलियां खाईं, वह देश आज गांधी, नेहरू और सुभाष चंद्र बोस को स़िर्फ उनके जन्मदिन पर याद करता है. नई पीढ़ी तो आज़ादी के दीवानों के बलिदान के साथ-साथ आज़ादी के मायने भी भूल चुकी है. जिन लोगों की वजह से आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं, उन्हें हमने सम्मानित करना तो दूर, बदहाली के दलदल में छोड़ दिया है. उनके अनुभव से सीखना तो दूर, समारोहों में उन्हें बोलने का भी मौक़ा नहीं दिया जाता. हम शायद भूल रहे हैं कि ये साधारण लोग नहीं हैं, जीते-जागते इतिहास हैं. लेकिन हम इतने निष्ठुर और संवेदनहीन हो गए हैं कि इनकी अहमियत को समझने की अक्ल हमारे अंदर नहीं बची. वरना हम इन्हें दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर न होने देते. जिन लोगों ने देश को आज़ाद कराने में अपनी जवानी लुटा दी, आज हालत यह है कि उन्हें सचिवालयों में प्रवेश के लिए घंटों लाइन में खड़े होकर पास बनवाना पड़ता है. सबसे बड़ी समस्या इलाज कराने की है. अब इनकी वो उम्र नहीं है कि अस्पतालों में लाइन लग कर अपना इलाज करवा सकें. जो स्वतंत्रता सेनानी गांव में रहते हैं उनकी हालत और भी खराब है. सरकार कम से कम इतना तो कर सकती थी कि डाक्टरों को उनके घर भेज कर उनका हालचाल पूछ सकती थी.
स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या

आंध्र प्रदेश                       14,573
असम 4,438
बिहार एवं झारखंड 24,870
गोवा 1,436
गुजरात 3,596
हरियाणा 1,685
हिमाचल प्रदेश                    624
जम्मू कश्मीर 1,806
कर्नाटक 10,084
केरल 3,228
मध्य प्रदेश 3,468
महाराष्ट्र 17,732
मणिपुर 62
मेघालय 86
मिजोरम 04
नागालैंड                            03
उड़ीसा                         4,189
पंजाब 7,008
राजस्थान                       811
तमिलनाडु 4,099
त्रिपुरा 887
उत्तर प्रदेश 17,990
पश्चिम बंगाल 22,484
अंडमान निकोबार 03
चंडीगढ़                              89
दादर नगर हवेली            83
दमन और दीव 33
दिल्ली 2,044
पांडिचेरी                       317

सरकार की तऱफ से स्वतंत्रता सेनानियों के लिए कई तरह की योजनाएं हैं. लेकिन ये योजना सबके लिए नहीं है. हर राज्यों के अलग नियम हैं. हैरानी की बात यह है कि उन्हें खुद को स्वतंत्रता सेनानी साबित करने के लिए कई तरह सबूत पेश करने पड़ते हैं. सरकार स़िर्फ उन्हें ही स्वतंत्रता सेनानी मानती है, जो आज़ादी की ल़डाई के दौरान जेल गए, छह महीने से ज़्यादा भूमिगत रहे या उन्हें छह महीने अथवा उससे ज़्यादा समय के लिए ज़िला बदर किया गया हो. स्वतंत्रता सेनानियों को पेंशन लेने के लिए यह भी साबित करना पड़ता है कि स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने की वजह से अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी संपत्ति की कुर्की कर ली या फिर उनकी नौकरी चली गई या फिर उन्हें सज़ा मिली. जो स्वतंत्रता सेनानी इससे संबंधित पर्याप्त काग़जात उपलब्ध नहीं करा पाते, उन्हें सरकार स्वतंत्रता सेनानी नहीं मानती. अगर चंद्रशेखर आज़ाद जीवित होते तो सरकार उन्हें स्वतंत्रता सेनानी नहीं मानती, क्योंकि वह अंग्रेजों से ल़डे तो थे, लेकिन कभी जेल नहीं गए, कभी नौकरी से निकाले नहीं गए.
आंध्र प्रदेश के उदूपी के  एक स्वतंत्रता सेनानी बाबू मास्टर के बारे में आपको बताता हूं. चौरानवे साल के बाबू मास्टर ने आज़ादी की लडाई में बढ़-च़ढ कर हिस्सा लिया. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वे कांग्रेस के जाने माने कार्यकर्ता रहे. गांधी की विचारधारा पर चलते हुए पूरा जीवन बिता दिया. स्वतंत्रता संग्राम के  दौरान वो पूरे ज़िले में घूम-घूम कर चरखा बांटते थे. नमक सत्याग्रह आंदोलन में हिस्सा लेने वे मैंगलोर गए. आज भी वो गांधी के बताए रास्ते पर चल रहे हैं. शायद यही उनकी बदकिस्मती रही. आज़ादी के बाद कुछ समय के लिए उन्हें पेंशन ज़रूर मिली लेकिन अचानक अधिकरियों ने कहा कि उनकी पेंशन बंद हो गई है. वजह बाबू मास्टर स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने के बावजूद कभी जेल नहीं गए. उनकी पेंशन रुक गई. बाबू मास्टर दाने-दाने के लिए तरस रहे हैं. उन्हें देखने वाला कोई नहीं है.
मिलने वाली सुविधाएं



हरियाणा सरकार 1980 से सरकारी सेवाओं में प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के पदों पर स्वतंत्रता सेनानियों के पुत्रों-पुत्रियों, पौत्रों- पौत्रियों को 2 प्रतिशत आरक्षण प्रदान कर रही है. 1985 से सीधी भर्तियों में भी आरक्षण की सुविधा दी जा रही है. तमिलनाडु, हिमाचल और कुछ अन्य राज्य सरकारें भी इनके आश्रितों को शिक्षण संस्थानों में आरक्षण देती हैं. आंध्र प्रदेश सरकार के नई दिल्ली स्थित आंध्रा भवन में स्वतंत्रता सेनानियों को रुकने की सुविधा है, हिमाचल सरकार भी नई दिल्ली स्थित हिमाचल भवन में यह सुविधा प्रदान करती है, लेकिन राजस्थान सरकार ने ऐसी कोई भी व्यवस्था नहीं की. कर्नाटक सरकार मैसूर लैंड रेवेन्यू रूल 1960 के अंतर्गत सरकारी भूमि के आवंटन में स्वतंत्रता सेनानियों को प्रथम वरीयता प्रदान करती है. यही नहीं, मध्य प्रदेश सरकार भी भूमि आवंटन में उन्हें प्रथम वरीयता प्रदान करती है.

जेल जाने वाले स्वतंत्रता सेनानी और जेल नहीं जाने वाले स्वतंत्रता सेनानी में सरकार इतना भेद क्यों करती है. अधिकारियों को यह समझ मेंक्यों नहीं आता है कि जो लोग जेल नहीं गए उन्होंने ज़्यादा कष्ट उठाए हैं. जो लोग स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जेल गए वे तो जेल के अंदर बी केटेगरी के बंदी बनकर रहते थे. लेकिन जो लोग जेल नहीं गए उन्हें घर परिवार छोड़ कर अंडरग्राउंड होकर आंदोलन का काम करना पड़ता था. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कांग्रेस सारे लोगों को जेल जाने से मना करती थी, क्योंकि अगर सारे लोग जेल चले जाएंगे तो जनता के बीच आज़ादी के आंदोलन को कौन चलाएगा. ऐसे ही लोगों के कंधों पर आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम होता था. ये छुप कर काम करते थे. उनके पास न रहने का ठिकाना था न ही खाने-पीने की व्यवस्था. उनके पीछे पुलिस लगी रहती थी. वे महीनों घर से बाहर दर दर की ठोकरें खाते थे.
खबरें आती हैं कि स्वतंत्रता सेनानी बदहाली से तंग आकर आत्महत्या कर रहे हैं और कुछ आशावान लोग कभी न खत्म होने वाले धरने पर बैठे हैं. इससे ज़्यादा बदतर हालात और क्या हो सकते हैं कि आज स्वतंत्रता सेनानी सार्वजनिक स्थानों पर खुद को स्वतंत्रता सेनानी बताने से भी सकुचाते हैं. अगर हमें उनकी हालत पर थोड़ी भी शर्म आती है और उनके लिए वास्तव में कुछ करने की इच्छा है तो हमें उनकी ओर एक बार फिर से ध्यान देना होगा. जिनके पास कृषि योग्य भूमि नहीं है, उन्हें सरकार विशेष दरों पर ज़मीन मुहैय्या कराए. व्यवसायिक तौर पर मज़बूत बनाने के लिए उन्हें गैस एजेंसियां और पेट्रोल पंप आदि आवंटित हों. लेकिन आज यह सब होता नहीं दिख रहा. अगर हालात ऐसे ही रहे तो अगले दस सालों में देशभक्तों की ये पीढ़ी खत्म हो जाएगी.
ये तो स्वंय इतिहास हैं. अगर हम इन्हें वो इज़्ज़त देते, जिसके वो हक़दार हैं. अगर इन्हें हर स्कूलों में बुलाया जाता, बच्चों से मिलवाया जाता तो देश के बच्चे-बच्चे की रगों में देशभक्ति का लहू बहता. वे स्वतंत्रता संग्राम से वाक़ि़फ होते. आज़ादी की लड़ाई में दिए गए बलिदान को जानता और आज़ादी के मायने को समझ पाता. अ़फसोस की बात यह है कि हमने हाशिए पर डाल दिया है, उन्हें हम समाज के एक वेस्टीजियल ऑर्गन की तरह ट्रीट करते हैं.

चाय बेचता देश भक्त तात्या टोपे का परिवार : राजीव भाई की आँखों में आंसू

शहीद उधम सिंह के पोते आज भी दिहाड़ी पर मजदूरी करते है

शहीद उधम सिंह के पोते आज भी दिहाड़ी पर मजदूरी करते है गाँधी के पोते एश की जिन्दगी जी रहे है 


शहीद उधम सिंह का परिवार बेहाल - शहीद उधम सिंह का परिवार आज मजदूरी कर
अपना पेट पाल रहा है और सरकारों ने अब तक कुछ नहीं किया।



Saturday, October 23, 2010

अस्पताल में पड़े एडियां रगड़ते बटुकेश्वर दत्त

बटुकेश्वर दत्त (नवंबर १९०८ - १९ जुलाई १९६५) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रान्तिकारी थे। क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी बटुकेश्वर दत्त को देश ने सबसे पहले 8 अप्रैल, 1929 को जाना, जब वे भगत सिंह के साथ केंद्रीय विधान सभा में बम विस्फोट के बाद गिरफ्तार किए गए। उन्होनें आगरा में स्वतंत्रता आंदोलन को संगठित करने में उल्लेखनीय कार्य किया था. देश की आजादी के लिए तमाम पीड़ा झेलने वाले क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी बटुकेश्वर दत्त का जीवन भारत की स्वतंत्रता के बाद भी जो दुःख और पीड़ाओं, और संघर्षों ने उनका पीछा नही छोड़ा और उन्हें वह सम्मान मिला ही नही जिसके वे सही मायने में हकदार थे 1 बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर, 1910 को बंगाली कायस्थ परिवार में ग्राम-औरी, जिला-नानी बेदवान (बंगाल) में हुआ था। इनका बचपन अपने जन्म स्थान के अतिरिक्त बंगाल प्रांत के वर्धमान जिला अंतर्गत खण्डा और मौसु में बीता। इनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा पी.पी.एन. कॉलेज कानपुर में सम्पन्न हुई। 1924 में कानपुर में इनकी भगत सिंह से भेंट हुई। इसके बाद इन्होंने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए कानपुर में कार्य करना प्रारंभ किया। इसी क्रम में बम बनाना भी सीखा। 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभा (वर्तमान का संसद भवन) में भगत सिंह के साथ बम विस्फोट कर ब्रिटिश राज्य की तानाशाही का विरोध किया। बम विस्फोट बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ प्रचार के माध्यम से अपनी बात को प्रचारित करने के लिए किया गया था। उस दिन भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था, जो इन लोगों के विरोध के कारण एक वोट से पारित नहीं हो पाया। इस घटना के बाद बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। 12 जून, 1929 को इन दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सजा सुनाने के बाद इन लोगों को लाहौर फोर्ट जेल में डाल दिया गया। यहां पर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर लाहौर षड़यंत्र केस चलाया गया। उल्लेखनीय है कि साइमन कमीशन के विरोध-प्रदर्शन करते हुए लाहौर में लाला लाजपत राय को अंग्रेजों के इशारे पर अंग्रेजी राज के सिपाहियों द्वारा इतना पीटा गया कि उनकी मृत्यु हो गई। इस मृत्यु का बदला अंग्रेजी राज के जिम्मेदार पुलिस अधिकारी को मारकर चुकाने का निर्णय क्रांतिकारियों द्वारा लिया गया था। इस कार्रवाई के परिणामस्वरूप लाहौर षड़यंत्र केस चला, जिसमें भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा दी गई थी। बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास काटने के लिए काला पानी जेल भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने 1933 और 1937 में ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। सेल्यूलर जेल से 1937 में बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना में लाए गए और 1938 में रिहा कर दिए गए। काला पानी से गंभीर बीमारी लेकर लौटे दत्त फिर गिरफ्तार कर लिए गए और चार वर्षों के बाद 1945 में रिहा किए गए। आजादी के बाद नवम्बर, 1947 में अंजली दत्त से शादी करने के बाद वे पटना में रहने लगे। आजादी की खातिर 15 साल जेल की सलाखों के पीछे गुजारने वाले बटुकेश्वर दत्त को आजाद भारत में रोजगार मिला एक सिगरेट कंपनी में एजेंट का, जिससे वह पटना की सड़कों की धूल खाने को मजबूर हो गये1 बाद में उन्होंने बिस्कुट और डबलरोटी का एक छोटा सा कारखाना खोला, लेकिन उसमें काफी घाटा हो गया और जल्द ही बंद हो गया। कुछ समय तक टूरिस्ट एजेंट एवं बस परिवहन का काम भी किया, परंतु एक के बाद एक कामों में असफलता से उनका जीवन और दूभर हो गयाा बटुकेश्वर दत्त को अपना सदस्य बनाने का गौरव बिहार विधान परिषद ने 1963 में प्राप्त किया। बटुकेश्वर दत्त के 1964 में अचानक बीमार होने के बाद उन्हें गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। इस दुःखमय जीवन को देखकर उनके नजदीकी मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख में अपने विचार कुछ यूं रखे कि , क्या दत्त जैसे कांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है। खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एडियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है। तत्‍पश्‍चात सत्‍ता की सियासत में जैसे भूचाल आ गया और आजाद, केंद्रीय गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा और पंजाब के मंत्री भीमलाल सच्चर से मिले। पंजाब सरकार ने एक हजार रुपए का चेक बिहार सरकार को भेजकर वहां के मुख्यमंत्री केबी सहाय को लिखा कि यदि वे उनका इलाज कराने में सक्षम नहीं हैं तो वह उनका दिल्ली या चंडीगढ़ में इलाज का सारा खर्च देने को तैयार हैंा अंतत: बिहार सरकार होश में आयी और पटना मेडिकल कॉलेज में ड़ॉ मुखोपाध्याय ने दत्त का इलाज शुरू किया। मगर उनकी हालत बिगड़ती गयी, क्योंकि उन्हें सही इलाज नहीं मिल पाया था और 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया। दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से अपने दर्द को कुछ यूं बयां कियः -\'मुझे स्वप्न में भी ख्याल न था कि मैं उस दिल्ली में जहां मैने बम फेंका था, एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाया जाउंगा।\' उन्हें सफदरजंग अस्पताल में भर्ती किया गया। पीठ में भयानक दर्द के इलाज के लिए किए जाने वाले कोबाल्ट ट्रीटमेंट की व्यवस्था केवल एम्स में थी, लेकिन वहां भी कमरा मिलने में देरी हुई। 23 नवंबर को पहली दफा उन्हें कोबाल्ट ट्रीटमेंट दिया गया और 11 दिसंबर को उन्हें एम्स में भर्ती किया गया। बाद में यह मालूम हुआ कि दत्त बाबू को कैंसर है और उनकी जिंदगी के चंद दिन ही बचे हैं। असह्य भीषण वेदना झेल रहे दत्त चेहरे पर रंच मात्र भी दर्द की झलक नही दिखती थीा पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन जब दत्त से मिलने पहुंचे और उन्होंने पूछ लिया, हम आपको कुछ देना चाहते हैं, जो भी आपकी इच्छा हो मांग लीजिए। छलछलाई आंखों और फीकी मुस्कान के साथ उन्होंने कहा, हमें कुछ नहीं चाहिए। बस मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए। लाहौर षडयंत्र केस के किशोरीलाल अंतिम व्यक्ति थे जिन्हें उन्होंने पहचाना था। उनकी बिगड़ती हालत देखकर भगत सिंह की मां विद्यावती को पंजाब से कार से बुलाया गया। 17 जुलाई को वह कोमा में चले गये और 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हुई। दत्त बाबू इस दुनिया से विदा हो गये। उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के अनुसार, भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के निकट किया गया। इनकी एक पुत्री भारती बागची पटना में रहती हैं। बटुकेश्वर दत्त के विधान परिषद में सहयोगी रहे इन्द्र कुमार कहते हैं कि \'स्व. दत्त राजनैतिक महत्वाकांक्षा से दूर शांतचित एवं देश की खुशहाली के लिए हमेशा चिन्तित रहने वाले क्रांतिकारी थे।\' मातृभूमि के लिए इस तरह का जज्बा रखने वाले नौजवानों का इतिहास भारतवर्ष के अलावा किसी अन्य देश के इतिहास में उपलब्ध नहीं है।  

Source : http://kranti4people.com/article.php?aid=494

Thursday, October 21, 2010

डुमरांवः शहीदों के परिजन चाय बेच रहे हैं


आज़ाद हिंदुस्तान का ख्वाब लिए हज़ारों क्रांतिकारी सपूत आज़ादी की जंग में खुशी-खुशी शहीद हो गए. इन्हीं में शामिल हैं डुमरांव के चार ऐसे शहीद, जिन्होंने गोरों की गोलियां खाकर अपने खून से आजादी की नई इबारत लिखी. इनकी शहादत पर यहां के लोगों को गर्व है, लेकिन दुभार्र्ग्य यह है कि आज़ाद देश की सरकार इन शहीदों की कुर्बानी को पूरी तरह से भूल गई है. इनके परिजनों की माली हालत इतनी खराब हो चुकी है कि उन्हें अपने पैतृक मकान तक बेचने पड़ गए. कुछ तो रोज़ी-रोटी की तलाश में अपनी माटी को ही छोड़कर दूर-राज के इलाकों में गए. कई चाय-पान की दुकान चलाकर ज़िंदगी बसर कर रहे हैं.
यह कैसी विडंबना है कि परिजन आर्थिक गुलामी के उस हादसे में गुज़र-बसर कर रहे हैं, जिसके लिए उन्होंने बलिदान दिया. शायद लोकतंत्र के रहनुमा शहीदों तथा बलिदानियों को भूलने के आदी हो गए हैं. शहीद भिखिलाल के चचेरे नाती ललन प्रसाद गुप्ता कहते हैं कि आज तक सरकार ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया. उनके नाम पर केवल राजनीतिक होती रही.
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जंग-ए-आजादी की आग बक्सर में भी धधक रही थी. काव नदी घाटी में जुटे हजारों आंदोलनकारियों की भीड़ ने गुलामी के प्रतीक डुमरांव थाने पर तिरंगा फहराने का प्रण किया. सब मिलकर हाथ में तिरंगा लिए कूच कर गए. गोरी हुकूमत के थानेदार देवनाथ सिंह ने गोली चलाने की धमकी देकर खबरदार किया, लेकिन क्रांतिकारियों पर आजादी का जुनून सवार था. 16 अगस्त 1942 को थाने पर तिरंगा फहराने के दौरान दरोगा ने भीड़ पर अंधाधुंध गोलियां चला दीं. फिर भी तिरंगा फहराकर कपिल मुनी प्रसाद, गोपाल जी कहार, रामदास सोनार तथा रामदास लोहार सदा के लिए सो गए. शाहाबाद गजेटियर के अनुसार 18 लोग घायल हुए थे. इस क्रूरता ने लोगों को दहला दिया था. उसी दिन क्रांतिकारियों ने थाने को फूंक दिया. जिस दिन डुमरांव में घटना हुई, उसी दिन पटना में भी सात लोग शहीद हुए थे. इसकी गूंज ब्रिटेन तक पहुंची थी. फिर बड़ी संख्या में अंग्रेजी फौज यहां आकर क्रांतिकारियों का दमन करने लगी. 19 अगस्त को अपनी दुकान पर बैठे भिखीलाल को अंग्रेजों ने गोली मार दी. इस जुल्म और दमन के बाद आग और भड़क उठी, लेकिन शहीदों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया. पांच साल बाद अंग्रेज भागने को विवश हो गए. शहीदों के खून के बदले देशवासियों के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक स्वतंत्रता के सपने साकार हो गए, लेकिन दुर्भाग्य से शहीदों के परिजनों के ख्वाब बिखर गए. डुमरांव चौक पर पान की दुकान चलाकर परिवार पालने वाले शहीद कपिल मुनी के परिजन इस गरीबी से उबर नहीं पाए. उनके नाती-परनाती आज भी इसी राह पर हैं. कपिल मुनी चार भाई थे. उनकी पत्नी रूना देवी ग़रीबी में गुज़र बसर करते 1983 में स्वर्ग सिधार गईं, लेकिन सत्ता में शीर्ष पर बैठे लोगों को शहीद की विधवा को पेंशन देने का ख्याल भी नहीं आया. कपिल मुनी के एक नाती उदय प्रसाद मजदूरी करते हैं. डुमरांव स्टेशन के बगल में वर्षों से चाय की दुकान चलाने वाले उनके नाती दिलीप प्रसाद सुविधा का नाम सुनते ही व्यवस्था को कोसने लगते हैं. कहते हैं कि मैं 12 साल की उम्र से ही चाय बेचकर परिवार चलाता हूं. आज तक कोई पूछने तक नहीं आया. जब सरकार ही शहीदों को भूल गई तो परिवार को कौन पूछे. दिलीप जी कहते हैं कि इंदिरा आवास और वृद्धवस्था पेंशन की बात छोड़िए. एक ढेला भी नहीं मिला. अब तो मेरे लड़के-भतीजे वहीं चाय, पान और लिट्टी की दुकान चलाते हैं. बचन कहार की तीन औलादों में एक थे गोपाल जी. घर की आर्थिक हालत का़फी खराब थी. लिहाज़ा रोजी-रोटी चलाने के लिए वे डुमरांव की लालटेन फैक्ट्री में नौकरी करते थे. महज 19 वर्ष की उम्र में क्रांति की मशाल जलाकर गोपाल जी शहीद हो गए. फिर अंग्रेजों के दमन चक्र में उनका परिवार बिखर गया. कौन कहां किस हाल में था, किसी ने सुध नहीं ली. गोपाल जी के एक भाई नेपाल जी बंगाल चले गए, जबकि छोटे भाई ललन जी परदेस में खाक छानकर डुमरांव में आकर फटेहाल में गुजर-बसर करते हैं.
80 वर्ष की उम्र में अंग्रेजों से लोहा लेने वाले बाबू वीर कुवंर सिंह की माटी में रामदास सोनार की जवानी उम्र के चौथेपन में अंगड़ाई ले रही थी. घर की गरीबी तथा छोटे बच्चों का भी उम्र में बगावत का झंडा थामे शहीद हो गए. किसुन सोनार और छोटकन सोनार दो मासूम बेटे थे, घर में कोई संपत्ति नहीं थी. गरीबी में सरकार से मदद की गुहार लगाकर थक गए, लेकिन उनकी बेबसी पर किसी को दया नहीं आई. लाचार होकर किसुन ने अपने पूर्वजों का मकान बेचकर बिटिया के हाथ पीले किए. भुखमरी के शिकार छोटकन उड़ीसा के राउरकेला चले गए. वहीं चाय-पान की दुकान चलाकर परिवार का भरण पोषण करते हैं.
चौथे शहीद रामदास सोनार, जो 30 वर्ष की उम्र में शहीद हुए और इसके बाद इनका परिवार बिखर गया. परिवार संपन्न था. दुकान, बाग तथा जमीन भी थी. उनके चचेरे नाती राम प्रकाश बताते हैं कि चाचा भोला को गरीबी ने इस कद्र सताया कि उन्होंने पैतृक घर बेच दिया. वह मकान आज भी इसी अवस्था में है. वे भी अब इस दुनिया में नहीं हैं. शहीद के चाचा शिव नारायण इलाहाबाद चले गए. शर्मसार कर देने वाली शहीदों के परिजनों की इस हालत पर किसी को तरस भी नहीं आया. यह कैसी विडंबना है कि परिजन आर्थिक गुलामी के उस हादसे में गुज़र-बसर कर रहे हैं, जिसके लिए उन्होंने बलिदान दिया. शायद लोकतंत्र के रहनुमा शहीदों तथा बलिदानियों को भूलने के आदी हो गए हैं. शहीद भिखिलाल के चचेरे नाती ललन प्रसाद गुप्ता कहते हैं कि आज तक सरकार ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया. उनके नाम पर केवल राजनीतिक होती रही. काफी लंबे अरसे बाद क्षेत्रीय विधायक तथा तत्कालीन भवन निर्माण मंत्री वसंत सिंह द्वारा 1999 में एक शहीद स्मारक तथा कपिल मुनी द्वारा बना दिया गया. शहीद स्मारक समिति में अध्यक्ष शिव जी पाठक तथा महासचिव प्रदीप कुमार है. शहीद पार्क बनाकर इनकी मूर्ति स्थापित और सरकारी स्तर पर शहीद दिवस मनाने की मांग आज तक पूरी नहीं हुई. इसके लिए दो बार पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिलकर ज्ञापन दिया गया, लेकिन परिणाम शून्य ही रहा. ये लोग यह भी कहते हैं कि यदि सरकार द्वारा कुछ नहीं किया गया तो परिजनों की तरह शहीदों को भी आने वाली पीढ़ी भूल जाएगी.