आज़ाद हिंदुस्तान का ख्वाब लिए हज़ारों क्रांतिकारी सपूत आज़ादी की जंग में खुशी-खुशी शहीद हो गए. इन्हीं में शामिल हैं डुमरांव के चार ऐसे शहीद, जिन्होंने गोरों की गोलियां खाकर अपने खून से आजादी की नई इबारत लिखी. इनकी शहादत पर यहां के लोगों को गर्व है, लेकिन दुभार्र्ग्य यह है कि आज़ाद देश की सरकार इन शहीदों की कुर्बानी को पूरी तरह से भूल गई है. इनके परिजनों की माली हालत इतनी खराब हो चुकी है कि उन्हें अपने पैतृक मकान तक बेचने पड़ गए. कुछ तो रोज़ी-रोटी की तलाश में अपनी माटी को ही छोड़कर दूर-राज के इलाकों में गए. कई चाय-पान की दुकान चलाकर ज़िंदगी बसर कर रहे हैं.
यह कैसी विडंबना है कि परिजन आर्थिक गुलामी के उस हादसे में गुज़र-बसर कर रहे हैं, जिसके लिए उन्होंने बलिदान दिया. शायद लोकतंत्र के रहनुमा शहीदों तथा बलिदानियों को भूलने के आदी हो गए हैं. शहीद भिखिलाल के चचेरे नाती ललन प्रसाद गुप्ता कहते हैं कि आज तक सरकार ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया. उनके नाम पर केवल राजनीतिक होती रही.
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जंग-ए-आजादी की आग बक्सर में भी धधक रही थी. काव नदी घाटी में जुटे हजारों आंदोलनकारियों की भीड़ ने गुलामी के प्रतीक डुमरांव थाने पर तिरंगा फहराने का प्रण किया. सब मिलकर हाथ में तिरंगा लिए कूच कर गए. गोरी हुकूमत के थानेदार देवनाथ सिंह ने गोली चलाने की धमकी देकर खबरदार किया, लेकिन क्रांतिकारियों पर आजादी का जुनून सवार था. 16 अगस्त 1942 को थाने पर तिरंगा फहराने के दौरान दरोगा ने भीड़ पर अंधाधुंध गोलियां चला दीं. फिर भी तिरंगा फहराकर कपिल मुनी प्रसाद, गोपाल जी कहार, रामदास सोनार तथा रामदास लोहार सदा के लिए सो गए. शाहाबाद गजेटियर के अनुसार 18 लोग घायल हुए थे. इस क्रूरता ने लोगों को दहला दिया था. उसी दिन क्रांतिकारियों ने थाने को फूंक दिया. जिस दिन डुमरांव में घटना हुई, उसी दिन पटना में भी सात लोग शहीद हुए थे. इसकी गूंज ब्रिटेन तक पहुंची थी. फिर बड़ी संख्या में अंग्रेजी फौज यहां आकर क्रांतिकारियों का दमन करने लगी. 19 अगस्त को अपनी दुकान पर बैठे भिखीलाल को अंग्रेजों ने गोली मार दी. इस जुल्म और दमन के बाद आग और भड़क उठी, लेकिन शहीदों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया. पांच साल बाद अंग्रेज भागने को विवश हो गए. शहीदों के खून के बदले देशवासियों के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक स्वतंत्रता के सपने साकार हो गए, लेकिन दुर्भाग्य से शहीदों के परिजनों के ख्वाब बिखर गए. डुमरांव चौक पर पान की दुकान चलाकर परिवार पालने वाले शहीद कपिल मुनी के परिजन इस गरीबी से उबर नहीं पाए. उनके नाती-परनाती आज भी इसी राह पर हैं. कपिल मुनी चार भाई थे. उनकी पत्नी रूना देवी ग़रीबी में गुज़र बसर करते 1983 में स्वर्ग सिधार गईं, लेकिन सत्ता में शीर्ष पर बैठे लोगों को शहीद की विधवा को पेंशन देने का ख्याल भी नहीं आया. कपिल मुनी के एक नाती उदय प्रसाद मजदूरी करते हैं. डुमरांव स्टेशन के बगल में वर्षों से चाय की दुकान चलाने वाले उनके नाती दिलीप प्रसाद सुविधा का नाम सुनते ही व्यवस्था को कोसने लगते हैं. कहते हैं कि मैं 12 साल की उम्र से ही चाय बेचकर परिवार चलाता हूं. आज तक कोई पूछने तक नहीं आया. जब सरकार ही शहीदों को भूल गई तो परिवार को कौन पूछे. दिलीप जी कहते हैं कि इंदिरा आवास और वृद्धवस्था पेंशन की बात छोड़िए. एक ढेला भी नहीं मिला. अब तो मेरे लड़के-भतीजे वहीं चाय, पान और लिट्टी की दुकान चलाते हैं. बचन कहार की तीन औलादों में एक थे गोपाल जी. घर की आर्थिक हालत का़फी खराब थी. लिहाज़ा रोजी-रोटी चलाने के लिए वे डुमरांव की लालटेन फैक्ट्री में नौकरी करते थे. महज 19 वर्ष की उम्र में क्रांति की मशाल जलाकर गोपाल जी शहीद हो गए. फिर अंग्रेजों के दमन चक्र में उनका परिवार बिखर गया. कौन कहां किस हाल में था, किसी ने सुध नहीं ली. गोपाल जी के एक भाई नेपाल जी बंगाल चले गए, जबकि छोटे भाई ललन जी परदेस में खाक छानकर डुमरांव में आकर फटेहाल में गुजर-बसर करते हैं.
80 वर्ष की उम्र में अंग्रेजों से लोहा लेने वाले बाबू वीर कुवंर सिंह की माटी में रामदास सोनार की जवानी उम्र के चौथेपन में अंगड़ाई ले रही थी. घर की गरीबी तथा छोटे बच्चों का भी उम्र में बगावत का झंडा थामे शहीद हो गए. किसुन सोनार और छोटकन सोनार दो मासूम बेटे थे, घर में कोई संपत्ति नहीं थी. गरीबी में सरकार से मदद की गुहार लगाकर थक गए, लेकिन उनकी बेबसी पर किसी को दया नहीं आई. लाचार होकर किसुन ने अपने पूर्वजों का मकान बेचकर बिटिया के हाथ पीले किए. भुखमरी के शिकार छोटकन उड़ीसा के राउरकेला चले गए. वहीं चाय-पान की दुकान चलाकर परिवार का भरण पोषण करते हैं.
चौथे शहीद रामदास सोनार, जो 30 वर्ष की उम्र में शहीद हुए और इसके बाद इनका परिवार बिखर गया. परिवार संपन्न था. दुकान, बाग तथा जमीन भी थी. उनके चचेरे नाती राम प्रकाश बताते हैं कि चाचा भोला को गरीबी ने इस कद्र सताया कि उन्होंने पैतृक घर बेच दिया. वह मकान आज भी इसी अवस्था में है. वे भी अब इस दुनिया में नहीं हैं. शहीद के चाचा शिव नारायण इलाहाबाद चले गए. शर्मसार कर देने वाली शहीदों के परिजनों की इस हालत पर किसी को तरस भी नहीं आया. यह कैसी विडंबना है कि परिजन आर्थिक गुलामी के उस हादसे में गुज़र-बसर कर रहे हैं, जिसके लिए उन्होंने बलिदान दिया. शायद लोकतंत्र के रहनुमा शहीदों तथा बलिदानियों को भूलने के आदी हो गए हैं. शहीद भिखिलाल के चचेरे नाती ललन प्रसाद गुप्ता कहते हैं कि आज तक सरकार ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया. उनके नाम पर केवल राजनीतिक होती रही. काफी लंबे अरसे बाद क्षेत्रीय विधायक तथा तत्कालीन भवन निर्माण मंत्री वसंत सिंह द्वारा 1999 में एक शहीद स्मारक तथा कपिल मुनी द्वारा बना दिया गया. शहीद स्मारक समिति में अध्यक्ष शिव जी पाठक तथा महासचिव प्रदीप कुमार है. शहीद पार्क बनाकर इनकी मूर्ति स्थापित और सरकारी स्तर पर शहीद दिवस मनाने की मांग आज तक पूरी नहीं हुई. इसके लिए दो बार पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिलकर ज्ञापन दिया गया, लेकिन परिणाम शून्य ही रहा. ये लोग यह भी कहते हैं कि यदि सरकार द्वारा कुछ नहीं किया गया तो परिजनों की तरह शहीदों को भी आने वाली पीढ़ी भूल जाएगी.
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