Saturday, October 22, 2011

जरा याद करो कुर्बानी


देश पर जान देने वाले लोगों को हम भूल गए। भूल गए उनकी पीढि़यों को जो गुमनामी के अंधेरे में हैं। 15अगस्त और 26 जनवरी को हम कुछ शहीदों को याद कर भूल जाते हैं। यह सोचने की जहमत नहीं उठाते कि उनके परिजन कहां और किस हालत में हैं। स्वतंत्रता आंदोलन की जो हस्तियां राजनीति में आ गईं, उनकी परिवार और पीढि़यों को तो लगा याद रखे हुए हैं, लेकिन उन्हें हमारी पीढ़ी का शायद ही कोई जानता हो, जिन्होंने सही मायने में देश के लिए जान दी। हमारी नई जेरनेशन तो उनके नाम तक नहीं जानती है। उसके पास टाइम नहीं है कि वह इस बारे में सोचे। वह अपने करियर के पीछे इस कदर भाग रही है कि मां-बाप तक पीछे छूट जाते हैं। फिर उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के शहीदों ओर उनके परिवार वाले कहां याद रहेंगे। ऐसे ही लोगों को झकझोरने और गुमनामी में खो चुके ऐसे लोगों को सामने लाने का काम किया है शिवनाथ झा ने। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक शिवनाथ झा इस काम में कई सालों से लगे हैं। वे इसे ‘आंदोलन एक पुस्तक से’ के जरिए मुहिम का रूप दे चुके हैं। इस सीरिज की पांचवी पुस्तक ‘इंडियन मोर्टियर्स एंड देयर डिसेंडेंटस 1857-1947’ जनवरी में लोगों के सामने होगी। 400 से अधिक पेजों की यह पुस्तक वह उधम सिंह की तीसरी पीढ़ी के लोगों को सहायता दिलाने के लिए ला रहे हैं। उनका परिवार बुरी हालत में इस समय जी रहा है। इस पुस्तक में शिवानाथ झा ने मंगल पांडेय, चन्द्रशेखर आजा, सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, चापेकर बंधु, जतीन्द्र नाथ मुखर्जी, अजीमुल्ला खा, अशफाउल्ला खां, राम प्रसाद बिस्मिल सहित 35 शहीदों को शामिल किया है।
शिवनाथ झा से जब दिलीप जायसवाल की बात हुई तो उन्होंने बताया कि पुस्तक के जरिए उनके आंदोलन की शुरूआत शहनाई वादक बिस्मिल्ला खां को सहायता दिलाने से शुरू हुई। यह 2002 की बात है। उसी समय उन्होंने आंदोलन एक पुस्तक से की मुहिम शुरू की। तब से यह आंदोलन पड़ाव दर पड़ाव आगे बढ़ रहा है। सीरिज की पांचवीं बुक वह शहीदों की गुमनाम पीढि़यों की सहायता के लिए ला रहे हैं। उन्हें हम भूल गए। सरकार भी सुध नहीं ले रही है। जिनकी वजह से हम आजादी की खुली हवा में सांस ले रहे हैं, उन्हें सिर्फ श्रद्वांजलि देने से काम नहीं चलेगा, उनकी पीढि़यों केा गुमनामी से बाहर लाकर काम करना होगा।
उधम सिंह- इस शहीद नाम हम भला कैसे भूल सकते हैं। ये वहीं उधम सिंह हैं, जिन्होंने जलियावाला बाग हत्याकांड का बदला जनरल डायर से लिया था। उनकी तीसरी पीढ़ी आज किस हालत में है यह आप नहीं जानते होंगे। उनके प्रपौत्र जीत सिंह आजकल दिहाड़ी मजदूर का काम पंजाब के सनमगरू में करते हैं। सिर पर ईंट, गारा ढोते हैं। परिवार चलाने के लिए उन्हें यह करना पड़ता है।उनके दो बेटों में से एक जसपाल कपड़े की दुकान पर काम करते हैं। इस शहीद परिवार की सुध तो सरकार ने नहीं ली, लेकिन शिवनाथ अपनी पुस्तक उन्ही की सहायता के लिए लेकर आ रहे हैं।
तात्याटोपे- तात्याटोपे को तो आप जानते ही होगे, जिन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में प्रमुख भूमिका निभाई। उनकी तीसरी पीढ़ी के विनायक राव टोपे अपनी पत्नी सरस्वती देवी और तीन बच्चों प्रगति, तृप्ति और आशुतोष के साथ कानपुर से 20 किमी दूर बिठूर में रहते थें। वहां वे किराना की दुकान चलाते थें। यह बात जब मीडिया में जून 2007 को आई तब तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने प्रगति और तृप्ति को रेलवे में जाॅब देने का आश्वासन दिया। इसके बाद उन्हें सहारा और सहायता मिली।
बहादुर शाह जफर- मुगलों के अंतिम शासक और 1857 की क्रांति का नेतृत्व करने वाले बहाुदर शाह जफर परिवार की 56 वर्षीय सुल्ताना बेगम तो पश्चिम बंगाल के हाबड़ाके एक स्लम एरिया में रहती थीं। वहां वे चाय की दुकान चलाकर अपना परिवार पाल रही थीं। सुल्ताना बेगम पति मुहम्मद बदर बख्त की मौत 1980 के बाद सरकार ने उन्हें रहने के लिए टाली गंज में एक आवास दिया था, लेकिन लोकल गुंडों ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया। उन्हें उसे फलैट से भगा दिया गया। उन्हें सहायता दिलाने का काम शिवनाथ ने किया।
झांसी की रानी- खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। भुजाएं फड़का देेने वाला यह देशभक्ति गीत लोगों की जुबान पर तो है, लेकिन रानी लक्ष्मीबाई के परिवार को लोग भूल गए। वह अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को बांधे युद्व लड़ी थीं। दामोदार राव की अगली पीढ़ी को लोग जानते नहीं होंगे। वे मध्य प्रदेश के इंदौर में एक गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं। तलवार से खेलने वाली पीढि़यों के वंशज आज कंप्यूटर चला रहे हैं। दामोदार राव की प्रपौत्री गायत्री साफटवेयर इंजीनियरिंग की छात्रा हैं। उनका परिवार भी अच्छी हालत में नहीं है।
बटुकंेश्वर नाथ दत्त- भगत सिंह के साथ मिलकर असेंबली में बम फेंकने वाले क्रातिकारी बटुकेश्वर दत्त को आजादी केा बाद लोग भूल गए। उनकी सुध सरकार को भी नहीं रही। उन्होंने गुमनामी की अंधेरे में 1965 में दिल्ली के एम्स में दम तोड़ दिया था। उनकी बेटी बागची आज उनकी यादों को जिंदा रखे हुए हैं। भगत सिंह के साथ फांसी पर चढ़ाए गए सुखदेव के परिजन भी खामोश जिंदगी गुजार रहे हैं। आजादी में अपने तीने बेटों की आहुति दे चुके पुणे का चापेकर परिवार के लोग अब साफटवेयर इंजीनियर हंैं। उनके आसपास वाले भी नहीं जानते कि यह शहीदों का परिवार हैं। चंद्रशेखर आजाद के दूर के वंशज गुड़गांव और दिल्ली में हैं। अनुशीलन समिति से जुड़े रहे क्रांतिकारी जतीन्द्रनाथ मुखर्जी के पोते पृथ्वीचन्द्रनाथ मुखर्जी पेरिस में रह रहे हैं। सत्येन्द्रनाथ बोस को अंग्रेजों ने तिरंगा फहराने पर फांसी दे दी थी। उनकी परिजन सागरिका घोष पश्चिम बंगाल के तुमलुक में रहती हैं।
इस पुस्तक इसी तरह बहुत से शहीद परिवारों को खोजकर सामने लाया गया है, जो गुमनामी में जी रहे हैं।
देश पर जान देने वाले लोगों को हम भूल गए। भूल गए उनकी पीढि़यों को जो गुमनामी के अंधेरे में डूबे हुए हैं। वक्त के साथ उन पर दुखों की मोटी परत चढ़ी हुई है। स्वतंत्रता आंदोलन की जो हस्तियां राजनीति में आ गईं, उनकी परिवार और पीढि़यों को तो लगा याद रखे हुए हैं, लेकिन उन्हें हमारी पीढ़ी का शायद ही कोई जानता हो, जिन्होंने सही मायने में दखे के लिए जान दी। हमारी नई जेरनेशन तो उनके नाम तक नहीं जानती है। गुमानामी में खो चुके ऐसे लोगों को सामने लाने का काम किया है शिवनाथ झा ने। वे सराकर एवं समाज को झकझोरने का कम कर रहे। इसके लिए वे आंदोलन एक पुस्तक से भारतीयों के सामने लाए हैं, इस सीरीज की बुक इंडियन मार्टर एंड देयर निगलेक्टेड डिसेंट में कई शहीदों के परिवार को सामने लाएं हैं, जिन्हें लोग भूल चुके हैं। युवा पीढ़ी के पास टाइम नहीं है कि वह इस बारे में सोचे। वह अपने करियर के पीछे इस कदर भाग रही है कि मां-बाप तक पीछे छूट जाते हैं। फिर उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के शहीदों ओर उनके परिवार वाले कहां याद रहेंगे।

  शिवनाथ बताते हैं कि शहीदों पर लोग लंबे-लंबे भाषण तो बहुत देते हैं, उनके वंशजों को उचित सम्मान देने की बात होती है, लेकिन जब उनके लिए कुछ करने की बात आती है तो सभी पीछे हट जाते हैं। सरकार भी इस पर ध्यान नहीं देती है। असेंबली बम कांड में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव शामिल थे। तीनों क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था। पार्लियामेंट में भगत सिंह की तस्वीर तो लगी है, लेकिन राजगुरू और सुखदेव का नहीं। इन दोनों शहीदों को सरकार याद तक नहीं करती। जब उनके साथ यह किया जा रहा है तो उनके वंशजों की सरकार कहां तक सुध लेगी समझा जा सकता है। शिवनाथ बताते हैं कि उधम सिंह के वंशजों जीत सिंह और अन्य की सहायत के लिए वह अपनी नई पुस्तक ला रहे हैं। इस पुस्तक से जो भी कमाई होगी वह उनके वंशजों को दी जाएगी। इस आंदोलन को लेकर लोग बात तो बहुत करते हैं। इसकी तारीफ भी करते हैं, लेकिन जब सहायता की बात आती है तो मुश्किल से कोई सामने आता है। इसी कारण इस बुक को पब्लिश करने मेें आर्थिक दिक्कतों का सामना पड़ रहा है। वह बताते हैं कि एक बुक की कीमत 2100 रूपये है। लोग इसे खरीद कर शहीद परिवार की मदद कर सकते हैं।
 

Source : http://apnajagat.blogspot.com/2011_06_01_archive.html

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