Saturday, October 22, 2011

जरा याद करो कुर्बानी


देश पर जान देने वाले लोगों को हम भूल गए। भूल गए उनकी पीढि़यों को जो गुमनामी के अंधेरे में हैं। 15अगस्त और 26 जनवरी को हम कुछ शहीदों को याद कर भूल जाते हैं। यह सोचने की जहमत नहीं उठाते कि उनके परिजन कहां और किस हालत में हैं। स्वतंत्रता आंदोलन की जो हस्तियां राजनीति में आ गईं, उनकी परिवार और पीढि़यों को तो लगा याद रखे हुए हैं, लेकिन उन्हें हमारी पीढ़ी का शायद ही कोई जानता हो, जिन्होंने सही मायने में देश के लिए जान दी। हमारी नई जेरनेशन तो उनके नाम तक नहीं जानती है। उसके पास टाइम नहीं है कि वह इस बारे में सोचे। वह अपने करियर के पीछे इस कदर भाग रही है कि मां-बाप तक पीछे छूट जाते हैं। फिर उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के शहीदों ओर उनके परिवार वाले कहां याद रहेंगे। ऐसे ही लोगों को झकझोरने और गुमनामी में खो चुके ऐसे लोगों को सामने लाने का काम किया है शिवनाथ झा ने। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक शिवनाथ झा इस काम में कई सालों से लगे हैं। वे इसे ‘आंदोलन एक पुस्तक से’ के जरिए मुहिम का रूप दे चुके हैं। इस सीरिज की पांचवी पुस्तक ‘इंडियन मोर्टियर्स एंड देयर डिसेंडेंटस 1857-1947’ जनवरी में लोगों के सामने होगी। 400 से अधिक पेजों की यह पुस्तक वह उधम सिंह की तीसरी पीढ़ी के लोगों को सहायता दिलाने के लिए ला रहे हैं। उनका परिवार बुरी हालत में इस समय जी रहा है। इस पुस्तक में शिवानाथ झा ने मंगल पांडेय, चन्द्रशेखर आजा, सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, चापेकर बंधु, जतीन्द्र नाथ मुखर्जी, अजीमुल्ला खा, अशफाउल्ला खां, राम प्रसाद बिस्मिल सहित 35 शहीदों को शामिल किया है।
शिवनाथ झा से जब दिलीप जायसवाल की बात हुई तो उन्होंने बताया कि पुस्तक के जरिए उनके आंदोलन की शुरूआत शहनाई वादक बिस्मिल्ला खां को सहायता दिलाने से शुरू हुई। यह 2002 की बात है। उसी समय उन्होंने आंदोलन एक पुस्तक से की मुहिम शुरू की। तब से यह आंदोलन पड़ाव दर पड़ाव आगे बढ़ रहा है। सीरिज की पांचवीं बुक वह शहीदों की गुमनाम पीढि़यों की सहायता के लिए ला रहे हैं। उन्हें हम भूल गए। सरकार भी सुध नहीं ले रही है। जिनकी वजह से हम आजादी की खुली हवा में सांस ले रहे हैं, उन्हें सिर्फ श्रद्वांजलि देने से काम नहीं चलेगा, उनकी पीढि़यों केा गुमनामी से बाहर लाकर काम करना होगा।
उधम सिंह- इस शहीद नाम हम भला कैसे भूल सकते हैं। ये वहीं उधम सिंह हैं, जिन्होंने जलियावाला बाग हत्याकांड का बदला जनरल डायर से लिया था। उनकी तीसरी पीढ़ी आज किस हालत में है यह आप नहीं जानते होंगे। उनके प्रपौत्र जीत सिंह आजकल दिहाड़ी मजदूर का काम पंजाब के सनमगरू में करते हैं। सिर पर ईंट, गारा ढोते हैं। परिवार चलाने के लिए उन्हें यह करना पड़ता है।उनके दो बेटों में से एक जसपाल कपड़े की दुकान पर काम करते हैं। इस शहीद परिवार की सुध तो सरकार ने नहीं ली, लेकिन शिवनाथ अपनी पुस्तक उन्ही की सहायता के लिए लेकर आ रहे हैं।
तात्याटोपे- तात्याटोपे को तो आप जानते ही होगे, जिन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में प्रमुख भूमिका निभाई। उनकी तीसरी पीढ़ी के विनायक राव टोपे अपनी पत्नी सरस्वती देवी और तीन बच्चों प्रगति, तृप्ति और आशुतोष के साथ कानपुर से 20 किमी दूर बिठूर में रहते थें। वहां वे किराना की दुकान चलाते थें। यह बात जब मीडिया में जून 2007 को आई तब तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने प्रगति और तृप्ति को रेलवे में जाॅब देने का आश्वासन दिया। इसके बाद उन्हें सहारा और सहायता मिली।
बहादुर शाह जफर- मुगलों के अंतिम शासक और 1857 की क्रांति का नेतृत्व करने वाले बहाुदर शाह जफर परिवार की 56 वर्षीय सुल्ताना बेगम तो पश्चिम बंगाल के हाबड़ाके एक स्लम एरिया में रहती थीं। वहां वे चाय की दुकान चलाकर अपना परिवार पाल रही थीं। सुल्ताना बेगम पति मुहम्मद बदर बख्त की मौत 1980 के बाद सरकार ने उन्हें रहने के लिए टाली गंज में एक आवास दिया था, लेकिन लोकल गुंडों ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया। उन्हें उसे फलैट से भगा दिया गया। उन्हें सहायता दिलाने का काम शिवनाथ ने किया।
झांसी की रानी- खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। भुजाएं फड़का देेने वाला यह देशभक्ति गीत लोगों की जुबान पर तो है, लेकिन रानी लक्ष्मीबाई के परिवार को लोग भूल गए। वह अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को बांधे युद्व लड़ी थीं। दामोदार राव की अगली पीढ़ी को लोग जानते नहीं होंगे। वे मध्य प्रदेश के इंदौर में एक गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं। तलवार से खेलने वाली पीढि़यों के वंशज आज कंप्यूटर चला रहे हैं। दामोदार राव की प्रपौत्री गायत्री साफटवेयर इंजीनियरिंग की छात्रा हैं। उनका परिवार भी अच्छी हालत में नहीं है।
बटुकंेश्वर नाथ दत्त- भगत सिंह के साथ मिलकर असेंबली में बम फेंकने वाले क्रातिकारी बटुकेश्वर दत्त को आजादी केा बाद लोग भूल गए। उनकी सुध सरकार को भी नहीं रही। उन्होंने गुमनामी की अंधेरे में 1965 में दिल्ली के एम्स में दम तोड़ दिया था। उनकी बेटी बागची आज उनकी यादों को जिंदा रखे हुए हैं। भगत सिंह के साथ फांसी पर चढ़ाए गए सुखदेव के परिजन भी खामोश जिंदगी गुजार रहे हैं। आजादी में अपने तीने बेटों की आहुति दे चुके पुणे का चापेकर परिवार के लोग अब साफटवेयर इंजीनियर हंैं। उनके आसपास वाले भी नहीं जानते कि यह शहीदों का परिवार हैं। चंद्रशेखर आजाद के दूर के वंशज गुड़गांव और दिल्ली में हैं। अनुशीलन समिति से जुड़े रहे क्रांतिकारी जतीन्द्रनाथ मुखर्जी के पोते पृथ्वीचन्द्रनाथ मुखर्जी पेरिस में रह रहे हैं। सत्येन्द्रनाथ बोस को अंग्रेजों ने तिरंगा फहराने पर फांसी दे दी थी। उनकी परिजन सागरिका घोष पश्चिम बंगाल के तुमलुक में रहती हैं।
इस पुस्तक इसी तरह बहुत से शहीद परिवारों को खोजकर सामने लाया गया है, जो गुमनामी में जी रहे हैं।
देश पर जान देने वाले लोगों को हम भूल गए। भूल गए उनकी पीढि़यों को जो गुमनामी के अंधेरे में डूबे हुए हैं। वक्त के साथ उन पर दुखों की मोटी परत चढ़ी हुई है। स्वतंत्रता आंदोलन की जो हस्तियां राजनीति में आ गईं, उनकी परिवार और पीढि़यों को तो लगा याद रखे हुए हैं, लेकिन उन्हें हमारी पीढ़ी का शायद ही कोई जानता हो, जिन्होंने सही मायने में दखे के लिए जान दी। हमारी नई जेरनेशन तो उनके नाम तक नहीं जानती है। गुमानामी में खो चुके ऐसे लोगों को सामने लाने का काम किया है शिवनाथ झा ने। वे सराकर एवं समाज को झकझोरने का कम कर रहे। इसके लिए वे आंदोलन एक पुस्तक से भारतीयों के सामने लाए हैं, इस सीरीज की बुक इंडियन मार्टर एंड देयर निगलेक्टेड डिसेंट में कई शहीदों के परिवार को सामने लाएं हैं, जिन्हें लोग भूल चुके हैं। युवा पीढ़ी के पास टाइम नहीं है कि वह इस बारे में सोचे। वह अपने करियर के पीछे इस कदर भाग रही है कि मां-बाप तक पीछे छूट जाते हैं। फिर उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के शहीदों ओर उनके परिवार वाले कहां याद रहेंगे।

  शिवनाथ बताते हैं कि शहीदों पर लोग लंबे-लंबे भाषण तो बहुत देते हैं, उनके वंशजों को उचित सम्मान देने की बात होती है, लेकिन जब उनके लिए कुछ करने की बात आती है तो सभी पीछे हट जाते हैं। सरकार भी इस पर ध्यान नहीं देती है। असेंबली बम कांड में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव शामिल थे। तीनों क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था। पार्लियामेंट में भगत सिंह की तस्वीर तो लगी है, लेकिन राजगुरू और सुखदेव का नहीं। इन दोनों शहीदों को सरकार याद तक नहीं करती। जब उनके साथ यह किया जा रहा है तो उनके वंशजों की सरकार कहां तक सुध लेगी समझा जा सकता है। शिवनाथ बताते हैं कि उधम सिंह के वंशजों जीत सिंह और अन्य की सहायत के लिए वह अपनी नई पुस्तक ला रहे हैं। इस पुस्तक से जो भी कमाई होगी वह उनके वंशजों को दी जाएगी। इस आंदोलन को लेकर लोग बात तो बहुत करते हैं। इसकी तारीफ भी करते हैं, लेकिन जब सहायता की बात आती है तो मुश्किल से कोई सामने आता है। इसी कारण इस बुक को पब्लिश करने मेें आर्थिक दिक्कतों का सामना पड़ रहा है। वह बताते हैं कि एक बुक की कीमत 2100 रूपये है। लोग इसे खरीद कर शहीद परिवार की मदद कर सकते हैं।
 

Source : http://apnajagat.blogspot.com/2011_06_01_archive.html

Friday, October 21, 2011

स्वतंत्रता सेनानी : आजादी के बाद हक की लड़ाई


ॠषिकेश की घटना है. एक दिन सड़क के किनारे एक महिला की लाश मिली. लाश आधी सड़ चुकी थी. लोग लाश को देखकर नाक बंद कर बगल से गुज़र जा रहे थे. किसी ने पुलिस को ख़बर दी. पुलिस आई और लाश को ले गई. इस लाश का क्या हुआ यह पता नहीं लेकिन ये लाश किसकी है, यह पता करने में पुलिस को एक महीने से ज़्यादा का व़क्त लग गया. पता चला कि ये लाश बीना भौमिक की है. आज शायद ही किसी को मालूम हो कि बीना भौमिक कौन है. यह नाम उस लड़की का है जिसे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अग्नि कन्या के नाम से जाना जाता था.  इस लड़की ने ही 1932 में कोलकाता यूनिवर्सिटी में बीए के कोनवोकेशन के दौरान गवर्नर स्टेनली जैक्सन पर जानलेवा हमला किया था. स्टेनली तो बच गया लेकिन इस घटना से पूरे देश में तहलका मच गया था कि एक लड़की ने गवर्नर पर हमला कर दिया. पहली बार लोगों को लगा कि नौजवानों के साथ-साथ लड़कियां भी स्वतंत्रता संग्राम में अपने साहस का परिचय दे रही हैं. गवर्नर पर हमला करने के लिए बीना भौमिक को 9 साल की सज़ा हुई. जेल से निकलने के  बाद वह क्रांतिकारी बन गई.
जुगांतर रेवोल्यूशनरी क्लब की सदस्य बन गईं. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बीना भौमिक को फिर तीन साल जेल में रहना पड़ा. उस दौरान वह कोलकाता कांग्रेस कमेटी की सचिव थी. बीना भौमिक स्वतंत्रता संग्राम का जीता-जागता इतिहास थी, देश की धरोहर थी. हमने किसी अंजान शहर में इन धरोहरों को मरने छोड़ दिया है.
आज हम खुद को सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहते हैं, लेकिन क्या कभी हमने सोचा कि जिन लोगों ने देश को आज़ादी दिलाई, उनके साथ हमारा बर्ताव कैसा है? स्वतंत्रता सेनानी आज सरकारी दफ़्तरों के बाहर ठोकरें खा रहे हैं. अस्पताल के बाहर घंटों लाइन में खड़े होकर इलाज कराने को मजबूर हैं. ज़िंदगी के आखिरी पड़ाव में हमने उन्हें अकेला छोड़ दिया है. स्वतंत्रता संग्राम के दीवानों को काग़जात देकर साबित करना पड़ रहा है कि उन्होंने अंग्रेजों के खिला़फ लड़ाई की थी. विदेशियों से लड़ना उनके लिए आसान था, अपनों से लड़ना उन्हें भारी पड़ रहा है.
यही हमारा दुर्भाग्य है. यही आज़ाद भारत है, जिसके लिए बीना भौमिक जैसी हज़ारों नौजवानों और युवतियों ने अपना जीवन न्योछावर कर दिया था. उनका सपना तो न जाने कहां गुम हो गया लेकिन स्वतंत्रता के वे सेनानी, हमारे ब़ुजुर्ग, जो हमारे आस-पास हैं, जिंदा हैं, सांस ले रहे हैं, उन्हें हमने ज़िंदगी के आ़खिरी मोड़ पर अकेला छोड़ दिया है. स्वतंत्रता सेनानी बूढ़े हो गए हैं. हालात यह हैं कि समाज और सरकार की तऱफ से उन्हें कोई सहूलियत नहीं मिल रही है. ज़्यादातर सेनानियों को घर वालों ने भी छोड़ दिया है. बेटा साथ नहीं रहता है. समाज और सरकार ने उनका तिरस्कार कर दिया है. वे पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो गए हैं. सरकार की तऱफ से उन्हें पेंशन मिलती है. शर्मनाक़ बात यह है कि पेंशन की राशि इतनी कम है कि बताने में भी शर्म आती है. आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने वाले इन देशभक्तों को हम किसी फोर्थ क्लास कर्मचारी के वेतन से भी कम पैसे देते हैं.
आजादी के 63 सालों बाद भी हम देश के प्रति उनके त्याग और योगदान का महत्व समझ नहीं पा रहे हैं. हम उन्हें सम्मान देने और उनका हक़ दिलाने के बजाए उन्हें अपमानित कर रहे हैं. मई, 2010 में केंद्र सरकार द्वारा अदालत को बताया गया कि देश भर में क़रीब एक लाख सत्तर हज़ार स्वतंत्रता सेनानी हैं. हालांकि यह आंकड़ा सरकारी दस्तावेजों पर आधारित है. हर महीने यह संख्या बदलती रहती है, क्योंकि इन सेनानियों की उम्र्र इतनी हो चुकी है कि लगभग हर महीने कुछ की मौत हो जाती है. इनमें से क़रीब साठ हज़ार स्वतंत्रता सेनानियों को केंद्र सरकार द्वारा पेंशन मिल रही है, बाक़ी को राज्यों द्वारा पेंशन की व्यवस्था है. पेंशन वितरण के मामले में हर राज्य का अपना नियम है, पेंशन राशि भी अलग अलग है. केंद्र सरकार स्वतंत्रता सेनानियों को 12400 रुपये देती है. वह स्वतंत्रता सेनानी योजना के तहत कुल सात सौ पचासी करोड़ रुपये खर्च करती है. उधर हरियाणा के मुख्यमंत्री ने पिछले 15 अगस्त को स्वतंत्रता सेनानियों की पेंशन राशि छह हज़ार से बढ़ाकर ग्यारह हज़ार रुपये कर दी. इसी तरह कर्नाटक सरकार ने यह पेंशन तीन हज़ार से बढ़ाकर चार हज़ार रुपये कर दी है. दिल्ली में स्वतंत्रता सेनानियों की पेंशन साढ़े तीन हज़ार से बढ़ाकर साढ़े चार हज़ार रुपये कर दी गई है. हैरानी की बात यह है कि दिल्ली में 1998 से ही स्वतंत्रता सेनानियों को पेंशन देने की योजना शुरू की गई थी, लेकिन आज भी यहां पेंशन राशि अन्य राज्यों के मुक़ाबले का़फी कम है. तमिलनाडु में पिछले साल मुख्यमंत्री ने सेनानियों को मिलने वाली पेंशन चार हज़ार से बढ़ाकर पांच हज़ार रुपये कर दी. सरकार स्वतंत्रता सेनानियों की मदद के बड़े-बड़े दावे करती है. उन्हें आर्थिक सहायता के तौर पर पेंशन और विभिन्न क्षेत्रों में आरक्षण देने की बात करती है, लेकिन सच तो यह है कि न जाने कितने स्वतंत्रता सेनानी आज भी गुमनामी और ग़रीबी की ज़िंदगी जी रहे हैं. कई तो अपने हक़ की लड़ाई लड़ते-लड़ते इस दुनिया से ही विदा हो गए. सबसे ज़्यादा शर्मनाक़ बात तो यह है कि कई स्वतंत्रता सेनानियों ने खुद को स्वतंत्रता सेनानी साबित करने में अपनी शेष ज़िंदगी गुज़ार दी. अधिकारियों की मनमानी और व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार की वजह से कई फर्ज़ी लोग खुद को स्वतंत्रता सेनानी घोषित कर सरकारी सुविधाओं का फायदा उठा रहे हैं और असली स्वतंत्रता सेनानी दस्तावेजों में अपना नाम दर्ज कराने के लिए तरस रहे हैं. ताज्जुब की बात तो यह है कि फर्ज़ी लोगों में कई तो ऐसे हैं, जो आज़ादी के समय पैदा ही नहीं हुए थे या फिर उनकी उम्र चार-पांच साल के आसपास रही होगी. ऐसे मामलों में जो लोग पकड़े जाते हैं, उनकी पेंशन रोक दी जाती है. लेकिन सवाल यह खड़ा होता है कि जो अधिकारी बिना जांच-पड़ताल किए फर्ज़ी प्रमाणपत्र पर दस्तखत करके असली स्वतंत्रता सेनानियों का हक़ मारते हैं, उन्हें कोई सज़ा क्यों नहीं मिलती? सुप्रीम कोर्ट स्वतंत्रता सेनानियों की बदहाली पर अ़फसोस जताता है और इसके लिए सरकार की लालफीताशाही को ज़िम्मेदार बताता है, लेकिन क्या इतना का़फी है? ग़ौर करने वाली बात है कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि देश के ज़्यादातर स्वतंत्रता सेनानी ग़रीबी और भुखमरी की ज़िंदगी बिताने पर मजबूर हैं, सरकार की तरफ से दी जाने वाली पेंशन उनके लिए किसी खैरात से कम नहीं है. इस बात से साबित हो जाता है कि देश का सर्वोच्च न्यायालय भी जानता है कि सरकार स्वतंत्रता सेनानियों की अनदेखी कर रही है.
बात स़िर्फ पेंशन और आरक्षण की नहीं है, बात है उनके त्याग और संघर्ष के महत्व को समझने की. स्वतंत्रता संग्राम के जो सिपाही आज ज़िंदा हैं, उन्हें क्या वही भारत नज़र आता है, जिसके लिए वे लड़े थे?
भारत का स्वतंत्रता संग्राम इतिहास का ऐसा पन्ना है, जो कई मायनों में बेमिसाल है. आज़ादी के सिपाहियों की बहादुरी और त्याग की वजह से ही आज हम आज़ाद भारत में सांस ले पा रहे हैं. 1857 से शुरू हुआ स्वतंत्रता संग्राम 1947 तक चला. इसमें कई पीढ़ियों का संघर्ष और बलिदान शामिल है. देश को आ?ज़ाद कराने के लिए इस लड़ाई में जिन लोगों ने हिस्सा लिया, वे आज खुद को कोस रहे हैं. आएदिन भ्रष्टाचार, किसानों द्वारा आत्महत्या, नक्सलियों का बढ़ता प्रभाव, ग़रीब और अमीर में बढ़ता फासला, सांप्रदायिक दंगे, हिंसा और नेताओं के नित नए फरेब देखकर उनका कलेजा बैठ जाता है. उन्होंने जिस आज़ादी के लिए अंग्रेजों से लड़ाई की, वह तो कहीं नज़र नहीं आती.
जिस देश को आज़ाद कराने के लिए इन सिपाहियों ने लाठियां और गोलियां खाईं, वह देश आज गांधी, नेहरू और सुभाष चंद्र बोस को स़िर्फ उनके जन्मदिन पर याद करता है. नई पीढ़ी तो आज़ादी के दीवानों के बलिदान के साथ-साथ आज़ादी के मायने भी भूल चुकी है. जिन लोगों की वजह से आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं, उन्हें हमने सम्मानित करना तो दूर, बदहाली के दलदल में छोड़ दिया है. उनके अनुभव से सीखना तो दूर, समारोहों में उन्हें बोलने का भी मौक़ा नहीं दिया जाता. हम शायद भूल रहे हैं कि ये साधारण लोग नहीं हैं, जीते-जागते इतिहास हैं. लेकिन हम इतने निष्ठुर और संवेदनहीन हो गए हैं कि इनकी अहमियत को समझने की अक्ल हमारे अंदर नहीं बची. वरना हम इन्हें दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर न होने देते. जिन लोगों ने देश को आज़ाद कराने में अपनी जवानी लुटा दी, आज हालत यह है कि उन्हें सचिवालयों में प्रवेश के लिए घंटों लाइन में खड़े होकर पास बनवाना पड़ता है. सबसे बड़ी समस्या इलाज कराने की है. अब इनकी वो उम्र नहीं है कि अस्पतालों में लाइन लग कर अपना इलाज करवा सकें. जो स्वतंत्रता सेनानी गांव में रहते हैं उनकी हालत और भी खराब है. सरकार कम से कम इतना तो कर सकती थी कि डाक्टरों को उनके घर भेज कर उनका हालचाल पूछ सकती थी.
स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या

आंध्र प्रदेश                       14,573
असम 4,438
बिहार एवं झारखंड 24,870
गोवा 1,436
गुजरात 3,596
हरियाणा 1,685
हिमाचल प्रदेश                    624
जम्मू कश्मीर 1,806
कर्नाटक 10,084
केरल 3,228
मध्य प्रदेश 3,468
महाराष्ट्र 17,732
मणिपुर 62
मेघालय 86
मिजोरम 04
नागालैंड                            03
उड़ीसा                         4,189
पंजाब 7,008
राजस्थान                       811
तमिलनाडु 4,099
त्रिपुरा 887
उत्तर प्रदेश 17,990
पश्चिम बंगाल 22,484
अंडमान निकोबार 03
चंडीगढ़                              89
दादर नगर हवेली            83
दमन और दीव 33
दिल्ली 2,044
पांडिचेरी                       317

सरकार की तऱफ से स्वतंत्रता सेनानियों के लिए कई तरह की योजनाएं हैं. लेकिन ये योजना सबके लिए नहीं है. हर राज्यों के अलग नियम हैं. हैरानी की बात यह है कि उन्हें खुद को स्वतंत्रता सेनानी साबित करने के लिए कई तरह सबूत पेश करने पड़ते हैं. सरकार स़िर्फ उन्हें ही स्वतंत्रता सेनानी मानती है, जो आज़ादी की ल़डाई के दौरान जेल गए, छह महीने से ज़्यादा भूमिगत रहे या उन्हें छह महीने अथवा उससे ज़्यादा समय के लिए ज़िला बदर किया गया हो. स्वतंत्रता सेनानियों को पेंशन लेने के लिए यह भी साबित करना पड़ता है कि स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने की वजह से अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी संपत्ति की कुर्की कर ली या फिर उनकी नौकरी चली गई या फिर उन्हें सज़ा मिली. जो स्वतंत्रता सेनानी इससे संबंधित पर्याप्त काग़जात उपलब्ध नहीं करा पाते, उन्हें सरकार स्वतंत्रता सेनानी नहीं मानती. अगर चंद्रशेखर आज़ाद जीवित होते तो सरकार उन्हें स्वतंत्रता सेनानी नहीं मानती, क्योंकि वह अंग्रेजों से ल़डे तो थे, लेकिन कभी जेल नहीं गए, कभी नौकरी से निकाले नहीं गए.
आंध्र प्रदेश के उदूपी के  एक स्वतंत्रता सेनानी बाबू मास्टर के बारे में आपको बताता हूं. चौरानवे साल के बाबू मास्टर ने आज़ादी की लडाई में बढ़-च़ढ कर हिस्सा लिया. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वे कांग्रेस के जाने माने कार्यकर्ता रहे. गांधी की विचारधारा पर चलते हुए पूरा जीवन बिता दिया. स्वतंत्रता संग्राम के  दौरान वो पूरे ज़िले में घूम-घूम कर चरखा बांटते थे. नमक सत्याग्रह आंदोलन में हिस्सा लेने वे मैंगलोर गए. आज भी वो गांधी के बताए रास्ते पर चल रहे हैं. शायद यही उनकी बदकिस्मती रही. आज़ादी के बाद कुछ समय के लिए उन्हें पेंशन ज़रूर मिली लेकिन अचानक अधिकरियों ने कहा कि उनकी पेंशन बंद हो गई है. वजह बाबू मास्टर स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने के बावजूद कभी जेल नहीं गए. उनकी पेंशन रुक गई. बाबू मास्टर दाने-दाने के लिए तरस रहे हैं. उन्हें देखने वाला कोई नहीं है.
मिलने वाली सुविधाएं



हरियाणा सरकार 1980 से सरकारी सेवाओं में प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के पदों पर स्वतंत्रता सेनानियों के पुत्रों-पुत्रियों, पौत्रों- पौत्रियों को 2 प्रतिशत आरक्षण प्रदान कर रही है. 1985 से सीधी भर्तियों में भी आरक्षण की सुविधा दी जा रही है. तमिलनाडु, हिमाचल और कुछ अन्य राज्य सरकारें भी इनके आश्रितों को शिक्षण संस्थानों में आरक्षण देती हैं. आंध्र प्रदेश सरकार के नई दिल्ली स्थित आंध्रा भवन में स्वतंत्रता सेनानियों को रुकने की सुविधा है, हिमाचल सरकार भी नई दिल्ली स्थित हिमाचल भवन में यह सुविधा प्रदान करती है, लेकिन राजस्थान सरकार ने ऐसी कोई भी व्यवस्था नहीं की. कर्नाटक सरकार मैसूर लैंड रेवेन्यू रूल 1960 के अंतर्गत सरकारी भूमि के आवंटन में स्वतंत्रता सेनानियों को प्रथम वरीयता प्रदान करती है. यही नहीं, मध्य प्रदेश सरकार भी भूमि आवंटन में उन्हें प्रथम वरीयता प्रदान करती है.

जेल जाने वाले स्वतंत्रता सेनानी और जेल नहीं जाने वाले स्वतंत्रता सेनानी में सरकार इतना भेद क्यों करती है. अधिकारियों को यह समझ मेंक्यों नहीं आता है कि जो लोग जेल नहीं गए उन्होंने ज़्यादा कष्ट उठाए हैं. जो लोग स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जेल गए वे तो जेल के अंदर बी केटेगरी के बंदी बनकर रहते थे. लेकिन जो लोग जेल नहीं गए उन्हें घर परिवार छोड़ कर अंडरग्राउंड होकर आंदोलन का काम करना पड़ता था. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कांग्रेस सारे लोगों को जेल जाने से मना करती थी, क्योंकि अगर सारे लोग जेल चले जाएंगे तो जनता के बीच आज़ादी के आंदोलन को कौन चलाएगा. ऐसे ही लोगों के कंधों पर आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम होता था. ये छुप कर काम करते थे. उनके पास न रहने का ठिकाना था न ही खाने-पीने की व्यवस्था. उनके पीछे पुलिस लगी रहती थी. वे महीनों घर से बाहर दर दर की ठोकरें खाते थे.
खबरें आती हैं कि स्वतंत्रता सेनानी बदहाली से तंग आकर आत्महत्या कर रहे हैं और कुछ आशावान लोग कभी न खत्म होने वाले धरने पर बैठे हैं. इससे ज़्यादा बदतर हालात और क्या हो सकते हैं कि आज स्वतंत्रता सेनानी सार्वजनिक स्थानों पर खुद को स्वतंत्रता सेनानी बताने से भी सकुचाते हैं. अगर हमें उनकी हालत पर थोड़ी भी शर्म आती है और उनके लिए वास्तव में कुछ करने की इच्छा है तो हमें उनकी ओर एक बार फिर से ध्यान देना होगा. जिनके पास कृषि योग्य भूमि नहीं है, उन्हें सरकार विशेष दरों पर ज़मीन मुहैय्या कराए. व्यवसायिक तौर पर मज़बूत बनाने के लिए उन्हें गैस एजेंसियां और पेट्रोल पंप आदि आवंटित हों. लेकिन आज यह सब होता नहीं दिख रहा. अगर हालात ऐसे ही रहे तो अगले दस सालों में देशभक्तों की ये पीढ़ी खत्म हो जाएगी.
ये तो स्वंय इतिहास हैं. अगर हम इन्हें वो इज़्ज़त देते, जिसके वो हक़दार हैं. अगर इन्हें हर स्कूलों में बुलाया जाता, बच्चों से मिलवाया जाता तो देश के बच्चे-बच्चे की रगों में देशभक्ति का लहू बहता. वे स्वतंत्रता संग्राम से वाक़ि़फ होते. आज़ादी की लड़ाई में दिए गए बलिदान को जानता और आज़ादी के मायने को समझ पाता. अ़फसोस की बात यह है कि हमने हाशिए पर डाल दिया है, उन्हें हम समाज के एक वेस्टीजियल ऑर्गन की तरह ट्रीट करते हैं.

चाय बेचता देश भक्त तात्या टोपे का परिवार : राजीव भाई की आँखों में आंसू

शहीद उधम सिंह के पोते आज भी दिहाड़ी पर मजदूरी करते है

शहीद उधम सिंह के पोते आज भी दिहाड़ी पर मजदूरी करते है गाँधी के पोते एश की जिन्दगी जी रहे है 


शहीद उधम सिंह का परिवार बेहाल - शहीद उधम सिंह का परिवार आज मजदूरी कर
अपना पेट पाल रहा है और सरकारों ने अब तक कुछ नहीं किया।