Saturday, October 23, 2010

अस्पताल में पड़े एडियां रगड़ते बटुकेश्वर दत्त

बटुकेश्वर दत्त (नवंबर १९०८ - १९ जुलाई १९६५) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रान्तिकारी थे। क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी बटुकेश्वर दत्त को देश ने सबसे पहले 8 अप्रैल, 1929 को जाना, जब वे भगत सिंह के साथ केंद्रीय विधान सभा में बम विस्फोट के बाद गिरफ्तार किए गए। उन्होनें आगरा में स्वतंत्रता आंदोलन को संगठित करने में उल्लेखनीय कार्य किया था. देश की आजादी के लिए तमाम पीड़ा झेलने वाले क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी बटुकेश्वर दत्त का जीवन भारत की स्वतंत्रता के बाद भी जो दुःख और पीड़ाओं, और संघर्षों ने उनका पीछा नही छोड़ा और उन्हें वह सम्मान मिला ही नही जिसके वे सही मायने में हकदार थे 1 बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर, 1910 को बंगाली कायस्थ परिवार में ग्राम-औरी, जिला-नानी बेदवान (बंगाल) में हुआ था। इनका बचपन अपने जन्म स्थान के अतिरिक्त बंगाल प्रांत के वर्धमान जिला अंतर्गत खण्डा और मौसु में बीता। इनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा पी.पी.एन. कॉलेज कानपुर में सम्पन्न हुई। 1924 में कानपुर में इनकी भगत सिंह से भेंट हुई। इसके बाद इन्होंने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए कानपुर में कार्य करना प्रारंभ किया। इसी क्रम में बम बनाना भी सीखा। 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभा (वर्तमान का संसद भवन) में भगत सिंह के साथ बम विस्फोट कर ब्रिटिश राज्य की तानाशाही का विरोध किया। बम विस्फोट बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ प्रचार के माध्यम से अपनी बात को प्रचारित करने के लिए किया गया था। उस दिन भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था, जो इन लोगों के विरोध के कारण एक वोट से पारित नहीं हो पाया। इस घटना के बाद बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। 12 जून, 1929 को इन दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सजा सुनाने के बाद इन लोगों को लाहौर फोर्ट जेल में डाल दिया गया। यहां पर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर लाहौर षड़यंत्र केस चलाया गया। उल्लेखनीय है कि साइमन कमीशन के विरोध-प्रदर्शन करते हुए लाहौर में लाला लाजपत राय को अंग्रेजों के इशारे पर अंग्रेजी राज के सिपाहियों द्वारा इतना पीटा गया कि उनकी मृत्यु हो गई। इस मृत्यु का बदला अंग्रेजी राज के जिम्मेदार पुलिस अधिकारी को मारकर चुकाने का निर्णय क्रांतिकारियों द्वारा लिया गया था। इस कार्रवाई के परिणामस्वरूप लाहौर षड़यंत्र केस चला, जिसमें भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा दी गई थी। बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास काटने के लिए काला पानी जेल भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने 1933 और 1937 में ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। सेल्यूलर जेल से 1937 में बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना में लाए गए और 1938 में रिहा कर दिए गए। काला पानी से गंभीर बीमारी लेकर लौटे दत्त फिर गिरफ्तार कर लिए गए और चार वर्षों के बाद 1945 में रिहा किए गए। आजादी के बाद नवम्बर, 1947 में अंजली दत्त से शादी करने के बाद वे पटना में रहने लगे। आजादी की खातिर 15 साल जेल की सलाखों के पीछे गुजारने वाले बटुकेश्वर दत्त को आजाद भारत में रोजगार मिला एक सिगरेट कंपनी में एजेंट का, जिससे वह पटना की सड़कों की धूल खाने को मजबूर हो गये1 बाद में उन्होंने बिस्कुट और डबलरोटी का एक छोटा सा कारखाना खोला, लेकिन उसमें काफी घाटा हो गया और जल्द ही बंद हो गया। कुछ समय तक टूरिस्ट एजेंट एवं बस परिवहन का काम भी किया, परंतु एक के बाद एक कामों में असफलता से उनका जीवन और दूभर हो गयाा बटुकेश्वर दत्त को अपना सदस्य बनाने का गौरव बिहार विधान परिषद ने 1963 में प्राप्त किया। बटुकेश्वर दत्त के 1964 में अचानक बीमार होने के बाद उन्हें गंभीर हालत में पटना के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। इस दुःखमय जीवन को देखकर उनके नजदीकी मित्र चमनलाल आजाद ने एक लेख में अपने विचार कुछ यूं रखे कि , क्या दत्त जैसे कांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है। खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एडियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है। तत्‍पश्‍चात सत्‍ता की सियासत में जैसे भूचाल आ गया और आजाद, केंद्रीय गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा और पंजाब के मंत्री भीमलाल सच्चर से मिले। पंजाब सरकार ने एक हजार रुपए का चेक बिहार सरकार को भेजकर वहां के मुख्यमंत्री केबी सहाय को लिखा कि यदि वे उनका इलाज कराने में सक्षम नहीं हैं तो वह उनका दिल्ली या चंडीगढ़ में इलाज का सारा खर्च देने को तैयार हैंा अंतत: बिहार सरकार होश में आयी और पटना मेडिकल कॉलेज में ड़ॉ मुखोपाध्याय ने दत्त का इलाज शुरू किया। मगर उनकी हालत बिगड़ती गयी, क्योंकि उन्हें सही इलाज नहीं मिल पाया था और 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया। दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से अपने दर्द को कुछ यूं बयां कियः -\'मुझे स्वप्न में भी ख्याल न था कि मैं उस दिल्ली में जहां मैने बम फेंका था, एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाया जाउंगा।\' उन्हें सफदरजंग अस्पताल में भर्ती किया गया। पीठ में भयानक दर्द के इलाज के लिए किए जाने वाले कोबाल्ट ट्रीटमेंट की व्यवस्था केवल एम्स में थी, लेकिन वहां भी कमरा मिलने में देरी हुई। 23 नवंबर को पहली दफा उन्हें कोबाल्ट ट्रीटमेंट दिया गया और 11 दिसंबर को उन्हें एम्स में भर्ती किया गया। बाद में यह मालूम हुआ कि दत्त बाबू को कैंसर है और उनकी जिंदगी के चंद दिन ही बचे हैं। असह्य भीषण वेदना झेल रहे दत्त चेहरे पर रंच मात्र भी दर्द की झलक नही दिखती थीा पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन जब दत्त से मिलने पहुंचे और उन्होंने पूछ लिया, हम आपको कुछ देना चाहते हैं, जो भी आपकी इच्छा हो मांग लीजिए। छलछलाई आंखों और फीकी मुस्कान के साथ उन्होंने कहा, हमें कुछ नहीं चाहिए। बस मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए। लाहौर षडयंत्र केस के किशोरीलाल अंतिम व्यक्ति थे जिन्हें उन्होंने पहचाना था। उनकी बिगड़ती हालत देखकर भगत सिंह की मां विद्यावती को पंजाब से कार से बुलाया गया। 17 जुलाई को वह कोमा में चले गये और 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हुई। दत्त बाबू इस दुनिया से विदा हो गये। उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के अनुसार, भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के निकट किया गया। इनकी एक पुत्री भारती बागची पटना में रहती हैं। बटुकेश्वर दत्त के विधान परिषद में सहयोगी रहे इन्द्र कुमार कहते हैं कि \'स्व. दत्त राजनैतिक महत्वाकांक्षा से दूर शांतचित एवं देश की खुशहाली के लिए हमेशा चिन्तित रहने वाले क्रांतिकारी थे।\' मातृभूमि के लिए इस तरह का जज्बा रखने वाले नौजवानों का इतिहास भारतवर्ष के अलावा किसी अन्य देश के इतिहास में उपलब्ध नहीं है।  

Source : http://kranti4people.com/article.php?aid=494

Thursday, October 21, 2010

डुमरांवः शहीदों के परिजन चाय बेच रहे हैं


आज़ाद हिंदुस्तान का ख्वाब लिए हज़ारों क्रांतिकारी सपूत आज़ादी की जंग में खुशी-खुशी शहीद हो गए. इन्हीं में शामिल हैं डुमरांव के चार ऐसे शहीद, जिन्होंने गोरों की गोलियां खाकर अपने खून से आजादी की नई इबारत लिखी. इनकी शहादत पर यहां के लोगों को गर्व है, लेकिन दुभार्र्ग्य यह है कि आज़ाद देश की सरकार इन शहीदों की कुर्बानी को पूरी तरह से भूल गई है. इनके परिजनों की माली हालत इतनी खराब हो चुकी है कि उन्हें अपने पैतृक मकान तक बेचने पड़ गए. कुछ तो रोज़ी-रोटी की तलाश में अपनी माटी को ही छोड़कर दूर-राज के इलाकों में गए. कई चाय-पान की दुकान चलाकर ज़िंदगी बसर कर रहे हैं.
यह कैसी विडंबना है कि परिजन आर्थिक गुलामी के उस हादसे में गुज़र-बसर कर रहे हैं, जिसके लिए उन्होंने बलिदान दिया. शायद लोकतंत्र के रहनुमा शहीदों तथा बलिदानियों को भूलने के आदी हो गए हैं. शहीद भिखिलाल के चचेरे नाती ललन प्रसाद गुप्ता कहते हैं कि आज तक सरकार ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया. उनके नाम पर केवल राजनीतिक होती रही.
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जंग-ए-आजादी की आग बक्सर में भी धधक रही थी. काव नदी घाटी में जुटे हजारों आंदोलनकारियों की भीड़ ने गुलामी के प्रतीक डुमरांव थाने पर तिरंगा फहराने का प्रण किया. सब मिलकर हाथ में तिरंगा लिए कूच कर गए. गोरी हुकूमत के थानेदार देवनाथ सिंह ने गोली चलाने की धमकी देकर खबरदार किया, लेकिन क्रांतिकारियों पर आजादी का जुनून सवार था. 16 अगस्त 1942 को थाने पर तिरंगा फहराने के दौरान दरोगा ने भीड़ पर अंधाधुंध गोलियां चला दीं. फिर भी तिरंगा फहराकर कपिल मुनी प्रसाद, गोपाल जी कहार, रामदास सोनार तथा रामदास लोहार सदा के लिए सो गए. शाहाबाद गजेटियर के अनुसार 18 लोग घायल हुए थे. इस क्रूरता ने लोगों को दहला दिया था. उसी दिन क्रांतिकारियों ने थाने को फूंक दिया. जिस दिन डुमरांव में घटना हुई, उसी दिन पटना में भी सात लोग शहीद हुए थे. इसकी गूंज ब्रिटेन तक पहुंची थी. फिर बड़ी संख्या में अंग्रेजी फौज यहां आकर क्रांतिकारियों का दमन करने लगी. 19 अगस्त को अपनी दुकान पर बैठे भिखीलाल को अंग्रेजों ने गोली मार दी. इस जुल्म और दमन के बाद आग और भड़क उठी, लेकिन शहीदों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया. पांच साल बाद अंग्रेज भागने को विवश हो गए. शहीदों के खून के बदले देशवासियों के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक स्वतंत्रता के सपने साकार हो गए, लेकिन दुर्भाग्य से शहीदों के परिजनों के ख्वाब बिखर गए. डुमरांव चौक पर पान की दुकान चलाकर परिवार पालने वाले शहीद कपिल मुनी के परिजन इस गरीबी से उबर नहीं पाए. उनके नाती-परनाती आज भी इसी राह पर हैं. कपिल मुनी चार भाई थे. उनकी पत्नी रूना देवी ग़रीबी में गुज़र बसर करते 1983 में स्वर्ग सिधार गईं, लेकिन सत्ता में शीर्ष पर बैठे लोगों को शहीद की विधवा को पेंशन देने का ख्याल भी नहीं आया. कपिल मुनी के एक नाती उदय प्रसाद मजदूरी करते हैं. डुमरांव स्टेशन के बगल में वर्षों से चाय की दुकान चलाने वाले उनके नाती दिलीप प्रसाद सुविधा का नाम सुनते ही व्यवस्था को कोसने लगते हैं. कहते हैं कि मैं 12 साल की उम्र से ही चाय बेचकर परिवार चलाता हूं. आज तक कोई पूछने तक नहीं आया. जब सरकार ही शहीदों को भूल गई तो परिवार को कौन पूछे. दिलीप जी कहते हैं कि इंदिरा आवास और वृद्धवस्था पेंशन की बात छोड़िए. एक ढेला भी नहीं मिला. अब तो मेरे लड़के-भतीजे वहीं चाय, पान और लिट्टी की दुकान चलाते हैं. बचन कहार की तीन औलादों में एक थे गोपाल जी. घर की आर्थिक हालत का़फी खराब थी. लिहाज़ा रोजी-रोटी चलाने के लिए वे डुमरांव की लालटेन फैक्ट्री में नौकरी करते थे. महज 19 वर्ष की उम्र में क्रांति की मशाल जलाकर गोपाल जी शहीद हो गए. फिर अंग्रेजों के दमन चक्र में उनका परिवार बिखर गया. कौन कहां किस हाल में था, किसी ने सुध नहीं ली. गोपाल जी के एक भाई नेपाल जी बंगाल चले गए, जबकि छोटे भाई ललन जी परदेस में खाक छानकर डुमरांव में आकर फटेहाल में गुजर-बसर करते हैं.
80 वर्ष की उम्र में अंग्रेजों से लोहा लेने वाले बाबू वीर कुवंर सिंह की माटी में रामदास सोनार की जवानी उम्र के चौथेपन में अंगड़ाई ले रही थी. घर की गरीबी तथा छोटे बच्चों का भी उम्र में बगावत का झंडा थामे शहीद हो गए. किसुन सोनार और छोटकन सोनार दो मासूम बेटे थे, घर में कोई संपत्ति नहीं थी. गरीबी में सरकार से मदद की गुहार लगाकर थक गए, लेकिन उनकी बेबसी पर किसी को दया नहीं आई. लाचार होकर किसुन ने अपने पूर्वजों का मकान बेचकर बिटिया के हाथ पीले किए. भुखमरी के शिकार छोटकन उड़ीसा के राउरकेला चले गए. वहीं चाय-पान की दुकान चलाकर परिवार का भरण पोषण करते हैं.
चौथे शहीद रामदास सोनार, जो 30 वर्ष की उम्र में शहीद हुए और इसके बाद इनका परिवार बिखर गया. परिवार संपन्न था. दुकान, बाग तथा जमीन भी थी. उनके चचेरे नाती राम प्रकाश बताते हैं कि चाचा भोला को गरीबी ने इस कद्र सताया कि उन्होंने पैतृक घर बेच दिया. वह मकान आज भी इसी अवस्था में है. वे भी अब इस दुनिया में नहीं हैं. शहीद के चाचा शिव नारायण इलाहाबाद चले गए. शर्मसार कर देने वाली शहीदों के परिजनों की इस हालत पर किसी को तरस भी नहीं आया. यह कैसी विडंबना है कि परिजन आर्थिक गुलामी के उस हादसे में गुज़र-बसर कर रहे हैं, जिसके लिए उन्होंने बलिदान दिया. शायद लोकतंत्र के रहनुमा शहीदों तथा बलिदानियों को भूलने के आदी हो गए हैं. शहीद भिखिलाल के चचेरे नाती ललन प्रसाद गुप्ता कहते हैं कि आज तक सरकार ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया. उनके नाम पर केवल राजनीतिक होती रही. काफी लंबे अरसे बाद क्षेत्रीय विधायक तथा तत्कालीन भवन निर्माण मंत्री वसंत सिंह द्वारा 1999 में एक शहीद स्मारक तथा कपिल मुनी द्वारा बना दिया गया. शहीद स्मारक समिति में अध्यक्ष शिव जी पाठक तथा महासचिव प्रदीप कुमार है. शहीद पार्क बनाकर इनकी मूर्ति स्थापित और सरकारी स्तर पर शहीद दिवस मनाने की मांग आज तक पूरी नहीं हुई. इसके लिए दो बार पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिलकर ज्ञापन दिया गया, लेकिन परिणाम शून्य ही रहा. ये लोग यह भी कहते हैं कि यदि सरकार द्वारा कुछ नहीं किया गया तो परिजनों की तरह शहीदों को भी आने वाली पीढ़ी भूल जाएगी.